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सभी लोग आजीविकाविहीन दुःखी हो, नाभिरायके पास जाकर निर्वाह योग्य व्यवस्था पूछते हैं।
नाभिराय चौदहवें कुलकर मनु थे। उन्होंने धान्य, फल, इक्षु, रस आदिउपयोग करने के विधि बतलायी तथा मिट्टीक बत्तन बनाकर आवश्यकता की पूर्ति करनेका उपदेश दिया। प्रजामें सुख और शान्ति बनाये रखने के लिए दण्डव्यवस्था भी प्रतिपादित की। इसी पर्व में सभी कुलकरोंके कार्यों का वर्णन आया है । चतुर्थ पर्व में पुराणके वर्णनीय विषयोंका प्रतिपादन करने के अनन्तर जम्बू द्वीपके विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत गन्धिलदेश और उसकी अलकानगरीका चित्रण आया है। इस नगरी के अधिपति अतिबल विद्याधर और उसकी मनोह्रा नामक राज्ञीका वर्णन किया है। इस दम्पतिके महाबल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । अतिबल विरक्त होकर दोक्षित हो गया और महाबलको शासनभार प्राप्त हुआ | महाबलके महामति, सम्भिन्नमति, शतमति और स्वयं बुद्ध ये चार मन्त्री थे। राजा मन्त्रियोंके ऊपर शासनभार छोड़कर भोगोपभोगोंके सेवनमें आसक्त हो गया ।
पंचम पर्व में महाबलको विरक्ति और सलेखनाका निरूपण किया है। २२ दिनोंकी संलेखना के प्रभावसे महाबल ऐशान स्वर्ग में ललितांग नामका महद्धिक देव होता है । षष्ठ पर्व में आयुके छः मास शेष रहनेपर ललितांग दुःखी होता है, पर समझाये जानेपर वह अच्युत स्वर्गको जिनप्रतिमाओंका पूजन करतेकरते चैत्यवृक्ष के नीचे पंचनमस्कार मन्त्र का जाप करते-करते स्वर्गकी आयुको पूर्ण करता है | ललितांग स्वर्गसे च्युत हो, पुष्कलावत देशके उत्पलस्वेट नगर के राजा ववाह और रानी वसुन्धराके गर्भसे वज्रजंच नामका राजपुत्र होता है । ललितांगको प्रिया स्वयंप्रभा पुण्डरोकणी नगरीके राजा बज्रदन्तके यहाँ श्रीमती नामकी पुत्री होती है । यशोधर गुरुके कैवल्यमहोत्सव के लिए देवोंको आकाशमें जाते देखकर श्रीमतीको पूर्वभवका स्मरण हो आत्ता है और वह अपने प्रिय ललितांगदेवको प्राप्त करने के लिए कृत्संकल्प हो जाती है | पंडितत्राय उसकी सहायता करती है । वह श्रीमती द्वारा निर्मित पूर्वभवप्रतीकोंसे युक्त चित्रपटका लंकर उत्पलखेटके महापूत जिनालय में पहुँचता है। यहां पर चित्रपटको फैला देती है । दर्शकवृन्द उसे देखकर चकित हो जाते हैं, पर उसके यथार्थ रहस्यसे अनभिज्ञ ही रहते हैं ।
सप्तम पर्व में बताया गया है कि ललितांगदेवका जीव वज्यजंघ महापुत चैन्यालय में आता है, और उस चित्रपटको देखते ही, उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो जाता है, जिससे वह अपनी प्रिया स्वयंप्रभाको प्राप्त करनेके लिए
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३४३