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इन आठ विषयोंके अतिरिक्त आदिपुराण में निम्नलिखित पौराणिक तत्त्व भी विद्यमान हैं
१. शलाकापुरुषोंके कोनों पर आश्रयण । २. आख्यानों में सहसा दिशापरिवर्तन |
३. समकालीन सामाजिक समस्याओं का उद्घाटन ।
४. पारिवारिक जीवनके कटु-मधु चित्र |
५. संवाद तत्वकी अल्पता रहनेपर भी घटनासूत्रों द्वारा आख्यानोंमें गतिमत्वधर्मकी उत्पत्ति ।
६. कथाओं के मध्य में पूर्वजन्मके आख्यानोंका समवाय, धर्मतत्त्व और धर्मसिद्धान्तोंका नियोजन |
७. रोचकता मध्यविन्दु तक रहती है। अतः आगेकी कथावस्तुमें सघनता और घटनाओंका बाहुल्य |
८. अलंकृत वर्णन के साथ लोकतत्त्व और कथानक रूढ़ियों का प्रयोग । ९. लोकानुश्रुतियां, पुराणगाथाएँ, लोकविश्वास प्रभूतिका संयोग । १०. प्रेम, शृंगार, कुतूहल, मनोरजन, रहस्य एवं धर्मश्रद्धाका वर्णन । ११. जनमानसका प्रतिफलन, पूर्वजन्मके संस्कार और फलोपभोगोंकी तरलताका चित्रण |
आदिपुराणकी संक्षिप्त कथा-वस्तु
आदिपुराणको कथा वस्तुके प्रधान नायक आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती हैं। इन दोनों शलाकापुरुषोंके जीवनसे सम्पर्क रखनेवाले कितने ही अन्य महापुरुषोंकी कथाएँ भी आयी हैं। इस महाग्रन्थकी कथावस्तु ४७ पर्वो में विभक है । प्रथम दो पर्वों में कथाके वक्ता, श्रोता एवं पुराण श्रवणका फल आदि वर्णित है । तृत्तीय पर्व में उत्सर्पण और अवसर्पण कालों के सुषुमसुमादिभेदों एवं भोगभूमिकी व्यवस्थापर प्रकाश डाला गया है। प्रतिश्रुति आदि कुलकरोंकी उत्पत्ति, उनके कार्य और उनकी आयु आदिका वर्णन आया है । अन्तिम कुलकर नाभिरायके समय में गगनाङ्गग में सर्वप्रथम घनघटा, विद्युत् प्रकाश और सूर्य की स्वर्णरश्मियोंके सम्पर्क से उसमें रंग-विरंगे इन्द्रधनुष दिखलायी पड़ते हैं। वर्षा होती है और वसुधातल जलमय हो जाता है । मयूर नृत्य करने लगते हैं और चिरसंतप्त चातक सन्तोषको साँस लेता कल्पवृक्ष नष्ट हो जाते हैं और विविध प्रकारके धान्य अपने-आप उत्पन्न होने लगते हैं । कल्पवृक्षोंके न रहने से प्रजा में व्याकुलता व्याप्त हो जाती है आर
३४२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा