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अष्टम पर्व में वजंघ और
भोगोपभोग
बेचैन हो जाता है । पण्डिताधायको वह भी एक चित्रपट भेंट करता है, जिसमें स्वयंप्रभा जीवन रहस्यको अंकित किया गया है। वज्रजंत्र पुण्डरीकिणी नगरी में आता है और श्रीमती के साथ उसका विवाह हो जाता है । ललितांगदेव और स्वयंप्रभा पुनः बच्चजघ और श्रीमतोके रूप में सयोगको प्राप्त करते हैं । किया गया है। वज्रजंघका श्वसुर वज्रदन्त चक्रवर्ती कमलमें बन्द मृत भ्रमरको देखकर विरक्त हो जाता है । पुत्र अमिततेजके द्वारा शासन स्वीकृत न किये जानेपर वह उसके पुत्र पुण्डरीकको राज्य देकर यशोधर मुनिके समक्ष अनेक राजाओंके साथ दीक्षित हो जाता है । पण्डिताधाय भी दीक्षित हो जाती है। चक्रवर्तीकी पत्नी लक्ष्मीमति पुण्डरीकको अल्पवयस्क जानकर राज्य सम्भालने के लिए अपने जामाता वज्रजघको बुलाती है । वज्रजंघ अपनी प्रिया श्रीमती के साथ पुण्डरीकिणी नगरीको प्रस्थान करता है । वह मार्ग में चारणऋद्धिधारी मुनियोंको आहारदान देता है । वह दमधर नामक मुनिराज से अपने भवान्तर जानना चाहता है, मुनिराज उसे आठवें भाव में तीर्थंकर होने तथा श्रीमतोको दानतीर्थका प्रवर्तक श्रेयांस होने की भविष्यवाणी करते हैं । वज्ञजंघ पुण्डरीकिणी नगरमें पहुंचकर सबको सान्त्वना देता है और अपने नगर में लौट आता है ।
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नवम पर्व के प्रारम्भ में भोगोपभोगोंका चित्रण आया है । एक दिन नजंघ और श्रीमती शयनागारमें शयन कर रहे थे, सुगन्धित द्रव्यका धूम्र फैलनेस शयनागार अत्यन्त सुवासित हो रहा था । संयोगवश द्वारपाल उस दिन गवाक्ष खोलना भूल गया, जिससे श्वास रुक जाने के कारण उन दोनोकी मृत्यु हो गयी । पात्रदानके प्रभाव से दोनों उत्तरकुरुमें आर्य आर्या हुए। प्रीतिकर मुनिराज के सम्पर्क से आर्य मरण कर ईशान स्वर्ग में श्रीधर नामका देव हुआ । आर्या भी उसी स्वर्ग में देवी हुई ।
दशम पर्व के प्रारम्भ में प्रीतिकरके केवलज्ञान - उत्सवका वर्णन आया है । श्रीधर भी इस उत्सव में सम्मिलित हुआ । अन्तमें वह स्वर्ग से व्युक्त होकर जम्बू द्वीपके पूर्व विदेहकी सुषमा नगरीमें सुदृष्टि राजाकी सुन्दरनन्दा नामक रानीके गर्भसे सुविधि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। यह चक्रवर्ती राजा हुआ और श्रीमतीका जीव केशब नामक उसका पुत्र हुआ। सुविधि पुत्रके अनुरागके कारण मुनि न बन सका, पर धरपर ही धावकके व्रतोंका पालन कर सन्यासके प्रभावसे सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र हुआ ।
एकादश पर्व में अच्यूतेन्द्र के पर्याय वज्रनाभिका वर्णन आया है। वज्रनाभि चक्ररत्नकी प्राप्तिके अनन्तर दिग्विजय के लिए प्रस्थान करता है । राज्यको
३४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा