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विषय- परिचय
प्रथम प्रकरण जीवसमास है । इसमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी विविध दशाओं का वर्णन किया गया है !
मोह और योगके निमित्तसे होनेवाले जीवोंके परिणामोंके तारतम्यरूप क्रमविकसित स्थानों - भावोंको गुणस्थान कहा है । गुणस्थान १४ हैं - मिध्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व अविरतसम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली । प्रथम प्रकरणके प्रारम्भमें ही इन गुणस्थानोंका स्वरूप विवेचन किया गया है।
दूसरी प्ररूपणा जीवसमास है । जिन धर्मविशेषोंके द्वारा नाना जीव और नाना प्रकारकी उनकी जातियां जानी जाती हैं, उन धर्मविशेषोंको जीवसमास कहते हैं । जीवसमासके संक्षेपकी अपेक्षा १४ मेद हैं और विस्तारकी अपेक्षा २१, ३०, ३२, ३६, ३८, ४८, ५४ और ५७ भेद हैं। प्रथम प्रकरणमें इन समस्त भेदोंका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है ।
तीसरी पर्याप्रिरूपणा है । प्राणोंके कारणभूत शक्तिकी प्राप्तिको पर्याप्त कहते हैं | पर्याप्तियाँ छह हैं- आहारपर्याप्त शरीर पर्याप्त इन्द्रियपर्याप्त, दवासोच्छवासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनः पर्याप्ति । एकेन्द्रियजीवके प्रारम्भकी चार पर्याप्तियाँ, ढोइन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियपर्यन्त पाँच पर्याप्तियाँ और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवको छह पर्याप्तियाँ होती हैं ।
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चौथी प्राणप्ररूपणा है । पर्याप्तियोंके कार्यरूप इन्द्रियादिकके उत्पन्न होनेको प्राण कहते हैं । प्राणोंके दश भेद हैं- पाँच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास । एकेन्द्रिय जीवके स्पर्शन इन्द्रिय, कायवल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं । द्वीन्द्रियजीवके रसनेन्द्रिय और वचनबल इन दो प्राणों के अधिक होनेसे छह प्राण होते हैं । त्रन्द्रियजोवके घ्राणेन्द्रिय बढ़ने से सात प्राण, चतुरिन्द्रियजीवके चक्षु इन्द्रिय बढ़नेसे आठ प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियजीवके कर्णेन्द्रिय बढ़ने से ९ प्राण और संज्ञी पचेन्द्रियजीवके मनोबल बढ़ने से दश प्राण होते हैं ।
पांचवीं संज्ञाप्ररूपणा है । आहारादिकी वाञ्च्छाको संज्ञा कहते हैं। संज्ञाके चार भेद हैं-- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । चारों संज्ञाएँ सभी संसारी जीवोंमें पायी जाती है ।
४०० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा