________________
ये अत्यन्त प्रसिद्ध वीरसेन भट्टारक हमें पवित्र करें, जिनकी आत्मा स्वयं पवित्र है, जो कवियों में श्रेष्ठ हैं, जो लोकव्यवहार और काव्यस्वरूपके महान् ज्ञाता हैं तथा जिनकी वाणीके समक्ष औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं सुर-गुरु बृहस्पतिको वाणी भी सीमित - अल्प जान पड़ती है । सिद्धान्त - षट्खण्डागम सिद्धान्तग्रन्थके ऊपर उपनिबन्धन - निबन्धात्मक टीका रचनेवाले मेरे गुरु वीरसेन भट्टारकके कोमल चरण कमल सर्वदा मेरे मतरूपी सरोवरमें विद्य मान रहें ।
ऊपरके अवतरणसे यह स्पष्ट है कि वीरसेनाचार्य कवि और वाग्मी तो थे ही, साथ ही सिद्धान्तग्रन्थोंके टीकाकारके रूपमें भी प्रसिद्ध थे । जीवन-परिचय
वीरसेनने अपनी ववलाटीका - प्रशस्तिमें अपने गुरुका नाम एलाचार्य लिखा है । पर इसी प्रशस्तिकी चौथी गाथामें गुरुका नाम आर्यनन्दि और दादागुरुका नाम चन्द्रसेन कहा है ! डॉ० हीरालाल ' जेनका अनुमान है कि एलाचार्य इनके विद्या-गुरु और आर्यनदि इनके दीक्षा- गुरु थे । इनकी शाखा पञ्चस्तूपान्वय कही गयी है । इस शाखाका सम्बन्ध उत्तर भारतके मथुरा और हस्तिनापुरके साथ रहा है। इसकी एक उपशाखा दक्षिण भारतमें भी जा बसी थी । प्रशस्तिसे वीरसेनायं सिद्धान्त छन्द ज्योतिष, व्याकरण और न्याय शास्त्रके वेत्ता तथा भट्टारकपदसे विभूषित सिद्ध होते हैं ।
:
ל
इन्द्रनन्दिके 'श्रुतावतार' से ज्ञात होता है कि बप्पदेवकी टीका लिखे जानेके उपरान्त कितने ही वर्ष पश्चात् सिद्धान्तोंके तत्त्वह एलाचार्य हुए, ये चित्रकूटमें निवास करते थे । वीरसेनने इनके पास समस्त सिद्धान्तग्रन्थोंका अध्ययन किया । गुरुकी अनुशा प्राप्त कर वाटग्राम ( बड़ौदा ) में आये और वह कि आनतेन्द्र द्वारा बनवाये हुए जिनालय में ठहरे। यहाँ बप्पदेव गुरु द्वारा निर्मित टीका प्राप्त हुई । अनन्तर उन्होंने ७२००० श्लोकप्रमाण समस्त षट्खण्डागमको धवलाटीका लिखी। तत्पश्चात् कषायप्राभृतकी चार विभक्तियोंकी २०,००० श्लोकप्रगाण ही जयधवलाटीका लिखे जानेके उपरान्त उनका स्वर्गवास हो
P
१. चचलाटीका, पुस्तक प्रथम प्रस्तावना, पृ० ३६ । २. सिद्धत - छंद-जोइस वाय रण- पमाण सत्य णिणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ||५||
- धन लाटीकाको अन्तिम प्रशस्ति ।
३. श्रुतावतार श्लोक १७७ - १८४ ।
३२२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा