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एलाचार्यकी कृतियोंके उद्धरण ही मिलते हों । वीरसेनके गुरु होनेके कारण ये सिद्धान्नशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान थे, इसमें सन्देह नहीं । वीरसेनस्वामीने जयधवलाटीकामें मतभेदों का निर्देश करते हुए स्पष्ट लिखा है कि भट्टारक एलाचार्यके द्वारा उपदिष्ट व्याख्यान ही समीचीन होनेसे ग्राह्य है । यथा"तदो पुव्युत्तमेलाइरियभडारएण उवहट्टवक्खाणमेव एत्य घेतव्यं ।"
पट्ठाणभावेण
इस उद्धरणसे एलाचार्यकी प्रतिभाका अनुमान लगाया जा सकता है । एलाचार्य वाचकगुरु थे और उनकी प्रतिभा अप्रतिम थी ।
वीरसेनाचार्य
जिनसेन प्रथमने अपने हरिवंशपुराण में कविचक्रवर्तीके रूपमें वीरसेन आचार्यका स्मरण किया है । यथा
जितात्म-परलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । वीरसेनगुरोः कीर्तिरकला व भासते ।
जिन्होंने स्वपक्ष और परपक्षके लोगों को जीत लिया है तथा जो कवियोंके चक्रवर्ती हैं, ऐसे वीरसेनस्वामोकी निर्मल कीर्ति प्रकाशित हो रही है ।
आचार्य वीरसेन सिद्धान्तके पारङ्गत विद्वान् तो थे ही, साथ ही गणित, न्याय, ज्योतिष, व्याकरण आदि विषयोंका भी तलस्पर्शी पाण्डित्य उन्हें प्राप्त था | इनका बुद्धिवैभव अत्यन्त अगाध और पाण्डित्यपूर्ण है । वीरसेनस्वामीके शिष्य जिनसेनने अपने आदिपुराण एवं घवला - प्रशस्ति में इनकी 'कविवृन्दारक' कहकर स्तुति की है। उन्होंने लिखा है
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श्रवीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः स नः पुनातु पूतात्मा कविवृन्दारका मुनिः ॥ लोकवित्वं कवित्वञ्च स्थितं भट्टारके द्वयम् । वाङ् मिताऽवामिता यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥ सिद्धान्तो पनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् | मन्मनः सरसि स्थेयान् मुदुपादकुशेशयम् ॥
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१. कसायपाहुड, भाग १, पृ० १६२ |
२. हरिवंशपुराण १।३९ ॥
३. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण १४५५-९७ ।
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श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३२१