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परिचय
गृद्धपिच्छके नामान्तरोंमें एलाचार्यके नामकी गणना पायी जाती है। किन्तु प्रस्तुत एलाचार्य उनसे भिन्न हैं। ये वोरसेनके समकालीन हैं और उनका सैद्धान्तिक पाण्डित्य असाधारण होगा । इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें पलाचार्यके सम्बन्धमें लिखा है
काले गते कियत्यपि तत्त: पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमानेलाचायों बभूव सिद्धान्ततरचज्ञः !! तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः ।
उपरितमनिबन्धनाद्याधिकारानष्ट च लिलेखे । बप्पदेवके पश्चात् कुछ वर्ष बीत जानेपर सिद्धान्तशास्त्रके रहस्य ज्ञाता एलाचार्य हए । ये चित्रकूट नगरके निवासी थे। इनके पार्श्व में रहकर वीरसेनाचार्यने सकल सिद्धान्तोंका अध्ययन कर निबन्धनादि आठ अधिकारोंको लिखा। __ इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि बीरसेन आचार्यने आगमग्रन्थोंका अध्ययन एलाचार्यसे किया था। प्राचीन समयमें विद्यामुरु और दोक्षागुरु पृथक्-पृथक हुआ करते थे । अतः एलाचार्य वीरसेनके विद्यागुरुके रूप में रहे होंगे।
जयधवलाटीकाके प्रथम भागमें एलाचार्यके वात्सल्यको आचार्य वीरसेनने प्रशंसा को है । लिखा है-'जीन्भमेलाइरियवच्छओ'३ इस कथनसे ध्वनित होता है कि एलाचार्य वीरसेनको बहुत स्नेह करते थे। यही कारण है कि उन्होंने अपनेको एलाचार्यका वत्स कहा है। समय-निर्णय
इनके समयका निर्धारक रूपसे बड़ा प्रमाण यही है कि वीरसेनने उन्हें अपना गुरु बताया है और उन्हींके आदेशसे सिद्धान्त-ग्रन्थोंका प्रणयन किया है। अत: एलाचार्य वीरसेनके समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती हैं। वीरसेनने धवलाटीका शक संवत् ७३८ (ई० सन् ८१६)में समाप्त की थी । अतएव एलाचार्य आठवीं शताब्दीके उत्तरार्ध और नवमी शतीके पूर्वार्द्धके विद्वानाचार्य हैं । प्रतिभा एवं वैवुष्य ___ एलाचार्यके ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और न कोई ऐसी कृति ही उपलब्ध है, १. इन्द्रनन्दि श्रुतावतार, श्लोक १७७-१७८ । २. जयधवलाटीका समन्वित कसायपाइड, १ पृ. ८१ । ३२० : तोयंकर महावीर और इनकी बाचार्य-परम्परा