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रूपक प्रदान कर मलिन हुए न्याय मार्ग के प्रक्षालनकी बात वे कितनी सदयता से व्यक्त करते हैं
बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितैः माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते, सम्यग्ज्ञानजलेर्वचोभिरमलं
तत्रानुकम्पापरैः ||"
इसी प्रकार अनुप्रास, यमक आदि अलंकार भी इनके दर्शन-ग्रन्थोंमें काव्यरचना न होनेपर भी प्राप्त हैं । शैलीकी दृष्टिसे अकलंक निश्चय ही उद्योतकर और धर्मकीर्ति के समकक्ष हैं ।
एलाचार्य
एलाचार्यका स्मरण आचार्य वीरसेनने विद्यागुरुके रूपमें किया है। उन्होंने लखा है
जस्साए सेण मए सिद्धंतमिदं हि अहिलहृदं । महु सो एलाइरियो पसियत वरवीरसेणस्से ||
जिसके आदेश से मैंने इस सिद्धान्तग्रन्थको लिखा है वह एलाचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न हों ।
वीरसेनाचार्यने जयधवलाटीका में भी एलाचार्यका स्मरण किया है तथा उनकी कृपासे प्राप्त आगम-सिद्धान्तको लिखे जानेका निर्देश किया है। बताया है--' 'एदेण वयणेण सुत्तस्स देसाभासियत्तं जेण जाणाविदं तेण चउन्हं गईण उतुच्चारणाबलेण एलाइरियपसाएण य सेसकम्माणं परूवणा को दे ।"
प्रसादसे चारों गतियोंमें शेष
अर्थात् उच्चारण के बलसे और एलाचार्य के कर्मों की प्ररूपणा करते हैं— कालानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । इनमेंसे ओषको अपेक्षा मिथ्यात्वको तीन प्रकृतियोंका जघन्यकाल एक समय है, तथा उत्कृष्टकाल दो समय है । इसी प्रकार असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुण-हानि और असंख्यातगुण-हानिके जघन्य और उत्कृष्ट कालका आनयन एलाचार्य के उपदेशसे किया है ।
१. धवलाटीका, अन्तिम प्रशस्ति पुस्तक १६, गाथा १ ।
२. जयघवलाटोका समन्वित कसायपाहुड, भाग ४, पृ० १६९ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३१९