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वात् गगनकुसुमादिवत् । नास्ति सदेकान्तः सर्वव्यापारविरोधप्रसंगात् असदेकान्तवदिति विधिना प्रतिषेधेन या वस्तुतत्त्वं नियम्यते" |' शैली एवं काव्यप्रतिभा
अकलंकदेवकी शैली गूढ एवं शब्दार्थभित है । ये जिस विषयको भी ग्रहण करते हैं, उसका गम्भीर और अर्थपूर्ण बाक्शोंमें विवेचन करते हैं। अतः कमसे-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक विषयका निरूपण करना इनका लक्ष्य है। अकलंकदेवका उनकी रचनाओंपरसे षड्दर्शनोंका गम्भीर और सूक्ष्म चिन्सन अवगत होता है। फलतः उनका अतल तलस्पर्शी ज्ञान सर्वत्र उपलब्ध है। इनकी कारिकाओंमें अर्थगाम्भीर्य है, प्रसंगवश वे वादियोंपर करारा व्यंग्य करनेसे भी चूकते नहीं हैं । व्यंग्यके समय इनको रचनाओं में सरसता आ जाती है, और दर्शनके शुष्क विषय भी साहित्यके समान सरस प्रतीत होने लगते हैं। अदश्यानुपलब्धिसे अभाग की सिद्धि न माननेपर वे बौद्धोंपर व्यंग करते हुए कहते हैं
दध्यादां न प्रवत बौद्धः तद्भुतये जनः । अदश्यां सौगतीं तत्र तनुं संशङ्कमानक: || दध्यादिके तथा भुक्ते. न भुक्तं काजिकादिकम् ।
इत्यसो वेत्तु नो वेत्ति न भुक्ता सौगती तनुः ।। अदृश्यको आशंकासे बौद्ध दही खानेमें निःशंक प्रवृत्ति नहीं कर सकेंगे, क्योंकि वहाँ सुगत्तके अदृश्य शरीरको शंका बनी रहेगी । दही खानेपर काजी नहीं खायी, यह तो वे समझ सकते हैं, पर बुद्ध शरीर नहीं खाया, यह समझना उन्हें असम्भव है।
यह कितना मार्मिक व्यंग्य है । धर्मकीतिके अभेदप्रसंगका उत्तर भी अकलंकदेवने व्यंग्यात्मक रूपमें दिया है । अकलंकदेब कठिन-से-कठिन विषयको भी व्यंग्यात्मक सरलरूपमें प्रस्तुत करते हैं । यों तो अकलंकदेवने अनुष्टुप छन्दों में ही अधिकांश कारिकाएं लिखी हैं, पर उन्हें शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा छन्द भी विशेष प्रिय हैं । जहाँ उन्हें थोड़ा-सा भो अवसर मिलता है कि वे इन छन्दोंका प्रयोग करने लगते हैं। न्यायके प्रकरणों में उद्देश्यनिर्देशक और उपसंहारात्मक पद्यों में इन छन्दोंका प्रयोग पाया जाता है। मंगलाचरणके पद्योंमें अलंकारोंका नियोजन भी विद्यमान है । निम्नलिखित पद्य में सम्यक्ज्ञानको जल१, अष्टशती, कारिका १०९, पृ० ४८ । २. सिद्धधिनिश्चमटीका, भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण, भाग २,पृ. ४३७ । ३९८ : तीर्थकर महावीर और उनको बाचार्य-परम्परा