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१०, चक्षु के प्राप्यकारित्व और श्रोत्रके अप्राप्यकारित्वका निराकरण ।
११. श्रुतज्ञानके अन्तर्गत अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट भेद तथा उपमान, ऐतिह्म, अर्थापत्ति, सम्भव और अभावका समावेश ।
१२. आत्मसिद्धि ।
१३. स्वात्मा और परमात्माके विश्लेषणके साथ सप्तभंगीके सकलादेश और विकलादेशोंका विवेचन ।
१४. 'द्रव्यत्वयोगात् द्रव्यं' और 'गुणसंद्रावो द्रव्यं'की विस्तृत समीक्षा । १५. विभिन्न दर्शनोंके आलोक में शब्दके मूर्तिकत्वका विवेचन ।। १६. स्फोटवाद-समीक्षा ।
१७ कोक्वल, काण्ठेविद्दि, कौशिक, हरि, मश्रुमान, कपिल, रोमस, हरिताश्व, मुण्ड और थापा बादशादियों मालोचः ।
१८, मरीचिकुमार, उलूक, कपिल, गाग्र्य, व्याघ्रभूति, माठर, मौद्गलायन आदि अक्रियावादी दार्शनिकोंकी समीक्षा ।
१९. साकल्य, वासकल, कुथुमि, सात्यमुनी, चारायण, कठ, माध्यन्दिन, मौद, पैपलादि, वादरायण, येतिकायन, वसु और जैमिनि आदि अज्ञानवादियोंका समालोचन ।
२०. वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, बाल्मीकि, रोमहर्षिणी, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, इन्द्रदत्त आदि बैंनिक वादियोंकी समीक्षा ।
२१. जीव-अजीव आदि तस्वोंका निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानपूर्वक विवेचन ।
२२. ज्ञानोंके विषयक्षेत्रका कथन । २३. नयोंका सोपपत्तिक निरूपण । २४. शरीरोंका सविस्तर निरूपण | २५. लोकरचना-क्षेत्रफल और घनफलोंका निरूपण । २६ गुणस्थान, ध्यान, अनुप्रेक्षा एवं मार्गणा आदिका विस्तृत कथन । २७. द्रव्य और तत्त्वोंकी व्यवस्थाका कथन |
इस प्रकार 'तत्त्वार्थराजवात्तिक' में अनेक विशेष बातोंका कथन आया है । यह ग्रन्थ अध्याय, आह्निक और वातिकों में विमक है। यहाँ उदाहरणार्थ एकाध वातिक प्रस्तुत करते हैं, जिससे अकलंकदेवको विषयप्रतिपादनसम्बन्धी विशेषता अभिव्यक्त हो जायगी !
प्रमाणनयाणणाभवात-"एकान्तो द्विविधः सम्यगेकान्तो मिथ्र्यकान्त इति । अनेकान्तोऽपि द्विविधः-सम्यगनेकान्तो मिथ्यानेकान्त इति । तत्र सम्य
३१६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा