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प्रमाण्यवादको समीक्षा भी विस्तारपूर्वक इसी परिच्छेदमें प्रतिपादित है । सप्तम परिच्छेदमें बौद्धाभिमत ज्ञानेकान्तका निरसन किया गया है । उपेय और उपाय तत्त्वकी चर्चा भी इसी परिच्छेद में आयी है । अष्टम परिच्छेद में देवपुरुषार्थवादकी समीक्षा है। नवममें पुण्य-पापकी समीक्षा की गयी है | दशममें सांख्य, नैयायिक और बौद्धमतानुसार बन्ध, मोक्ष और उनके कारणोंको चर्चा आयी है। वाक्य और नयका लक्षण भी इसी परिच्छेदमें वर्णित है। ९. युस्त्यनुशासनालङ्कार
स्वामी समन्तभद्रके ६४ कारिकात्मक दार्शनिक 'युक्त्यनुशासनस्तोत्र' पर विद्यानन्दने मध्यम परिमाणकी यह 'युक्त्यनुशासनालङ्कार' टीका लिखी है। टोला सरल एवं विशद है।
वस्तुतः समन्तभद्रने मुल कारिकाओंमें जिन प्रमेयोंकी स्थापना की है, उनपर विस्तारपूर्वक इसमें विचार किया है । अद्वैतवाद तवाद, शाश्वतवाद, अशाश्वतवाद, वक्तव्यवाद, अक्तव्यवाद, अन्यतावाद, अनन्यतावाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, हेतुबाद, अहेतुवाद, विज्ञानवाद, बहिरर्थवाद, देववाद, पुरुषार्थवाद, पाप-पुण्यवाद, बन्धवाद, मोक्षवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादको समीक्षा विभिन्न दर्शनोंके पूर्वपक्षोंको उपस्थित कर की है। निश्चयतः समग्र दर्शनोंके प्रमेयोंका विचार इस ग्रन्थमें किया गया है । अतः हमें विद्यानन्दको "श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्य सहस्रसंख्यानः। विज्ञायते ययेव स्वसमयपरसमयसद्भावः ।।" आदि गर्वोक्ति स्वभावोक्सि प्रतीत होती है।
आचार्य देवसेन देवसेन नामके कई आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं। एक देवसेन वे हैं, जिन्होंने विक्रम सं० ९९० में दर्शनसारनामक ग्रन्थको रचना की थी। आलापपद्धति, लघुनयचक्र, आराधनासार और तत्त्वसार नामक ग्रन्थ भी देवसेनके द्वारा रचित हैं। इन सब ग्रन्थोंको दर्शनसारके रचयिता देवसेनकी कृति माना जाता है । दर्शनसारके अन्त में प्रशस्तिरूप दो गाथाएं बायी हैं, जो निम्न प्रकार हैं
पुवायरियकयाई गाहाई संचिकण एपत्य । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ रइओ दसणसारो हारो भष्वाण णवसए णवए ।
सिरिसासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुलदसमीए ।' है. दर्शनसार, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, वि० सं १९७४, गाथा-४९-५० ।
श्रुतपर और सारस्वताचाय : ३६५