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अर्थात् पूर्वाचार्योंके द्वारा रची हुई गाथाओंको एकत्र करके यह दर्शनसार नामका ग्रन्थ श्री देवसेनगणिने माघ शुक्ला दशमी, विक्रम सं० ९९०में धारानगरीमें निवास करते समय पार्श्वनाथ भगवानके मन्दिरमें रचा, जो भव्यजीवोंके हृदय में हारके समान शोभा देगा। तत्त्वसारकी प्रशस्तिमें बताया गया है
सोऊण तच्चसारे रइयं मुणिणादेवसेणेण ।
जो सट्ठिी भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं ।' मुनिनाथ देवसेनने सुनकर तत्वसार रचा, जो सम्यदृष्टि उसकी भावना करता है वह शाश्वत सुख प्राप्त करता है। आराधनासारके अन्तमें बताया है
ण य मे अस्थि कवित्तं ण मुणामो छंदलवखणं कि पि । जियभावणाणिमित्तं रइय आराहणासारं ॥ अमुणियतच्चेण इमं भणियं जं कि पि देवसेणेण |
सोहंतु तं मुणिंदा अस्थि हु जइ पबयण-विरुद्धं ।। न मुझे वनिनका परिक्षान है, न काम र व्याकग का ही । अपनीभावनाके निमित्त मैंने आराधनासार रचा है। पूर्णतत्त्वज्ञानसे अपरिचित देवसेनने जो कुछ भी इसमें कहा है यदि उसमें आगमविरुद्ध कथन हो तो मुनीन्द्र उसे शुद्ध कर लें।
- इस तरह देवसेनने दर्शनसारमें रचनाकाल और रचना-स्थानका निर्देश किया है किन्तु अन्य रचनाओंमें रचना-काल और रचना-स्थानका निर्देश नहीं है । दर्शनसारमें देवसेनने अपनेको देवसेनर्माण कहा है और तत्त्वसारमें मुनिनाथ देवसेन कहा है तथा आराधनासारमें केवल देवसेन । गणि और मनिनाथपदको एकार्थबाचक मान लेने पर एकरूपता आ सकती है।
भावसंग्रहके अतिरिक्त अन्यत्र किसी भी रचनामें गुरुके नामका स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता है, पर प्रकारान्तरसे गुरुके नामका अध्याहार किया जा सकता है। आराधनासारको मङ्गलगाथामें "विमल गुणसमिद्ध" पदके द्वारा, दर्शनसारमें "विमलणाण" पद द्वारा, नयचक्रमें "विगयमलं" और "विमलणाणसंयुक्तं" पदोंके द्वारा गुरुके नामका उल्लेख माना जा सकता है। अत: आराधनासार, दर्शनसार, भाव-संग्रह भादिके रचयिता एक ही व्यक्ति हैं। दर्शनसार और भाव-संग्रह तो एक ही व्यक्तिकी रचनाएं हैं क्योंकि श्वेताम्बर मतको १. तत्त्वसार, अन्तिम प्रशस्त्रि, गाथा ७४ । २. आराधनासार, गाथा ११४-११५ ।
३६६ : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य परम्परा