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पात्रकेसरीका 'अन्यथानुपपनत्व' पद्म अकलङ्कदेवके न्यायविनिश्चयमें मूलमें भी मिलता है। अतः पात्रकेसरी अकलदेव (वि०७ वी शती) के पूर्ववर्ती हैं। अभिलेखोंमें समन्तभद्रके अनन्तर पात्रकेसरीका नाम आया है। अतः समन्तभद्र (३री शती) के पश्चात् पात्रकेसरीका समय है । अर्थात् इनका समय विक्रम की छठी शताब्दीका उत्तरार्ध है। रचनाएं
इनकी दो रचनाएं मानी जाती हैं-१ विलक्षणकदर्थन और २ पात्रकेसरीस्तोत्र । त्रिलक्षणकदर्थनके तो मात्र उल्लेख मिलते हैं। वह उपलब्ध नहीं है। दूसरी कृति पात्रकेसरीस्तोत्र ही उपलब्ध है।
पात्रकेसरी स्तोत्र-इस स्तोत्रका दूसरा नाम 'जिनेन्द्रगुणसंस्तुसि' भी है । समन्तभद्रके स्तोत्रोंके समान यह स्तोत्र भी न्यायशास्त्रका ग्रन्थ है। भ्रमवश कतिपय आलोचकोंने विद्यानन्द और पात्रकेसरीको एक व्यक्ति समझ लिया था, असः पात्रकेसरीस्तोत्र विद्यानन्दके नामसे प्रकाशित है । परन्तु आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने 'स्वामो विद्यानन्द और पात्रकेसरी' शीर्षक प्रबन्धमें सप्रमाण उक्त मान्यताका खण्डन किया है ।'
प्रस्तुत स्तोत्रमें ५० पद्य हैं । अर्हन्त भगवानकी सयोगकेवली अवस्थाका बहुत ही गवेषणापूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया है। बीसरागताका विस्तृत वर्णन करते हुए पात्रस्वामीने कहा है
जिनेन्द्र ! गुणसंस्तुतिस्सव मनागपि प्रस्तुता भवत्यखिलकर्मणां प्रहत्तये पर कारणम् । इति व्यवसिता मतिर्मम ततोऽहमत्यादरात्,
स्फुटार्थनयपेशला सुगत ! संविधास्ये स्तुतिम् ॥ हे भगवन् ! आपके गुणोंको जो थोड़ी भी स्तुति करता है उसके लिए यह स्तुति समस्त कार्यों में आनेवाले विघ्नोंके विध्वंसका कारण बनती है अथवा समस्त कर्मों के नाश करने में सक्षम है। इस निश्चयसे प्रेरित होकर मैं अत्यन्त बादरपूर्वक नयमित स्फुट अर्थवाली स्तुतिको करता हूँ। __ इस प्रतिज्ञावाक्यक अनन्तर आराध्यदेवको स्तुति प्रारम्भ की है । वोत
१. जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकापा, पृ० ६३७-६६७ । २. प्रममगुष्का, पन्नालाल बोषरी, मदनी काशी, वि० सं० १९८२, पु० २८४,
पर ।
२४. : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य-परम्परा