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एतणिविसेस एतावसि च बदमाशो दव्वस्स पज्जवे पज्जवा हि दवियं जियते' |
अर्थात् सामान्यमें विशेषविषयक वचनका और विशेषमें सामान्यविषयक वचनका जो प्रयोग होता है, वह अनुक्रमसे सामान्य -- द्रव्यके परिणामको उससे भिन्न रूप में दिखलाता है और उसे - विशेषको सामान्य में नियत करता है ।
एकान्त निर्विशेष सामान्यका और एकान्त विशेषका प्रतिपादन करनेवाला द्रयके पर्यायोंको उससे भिन्न और पृथक् बतलाता है। व्यवहार ज्ञानमूलक होता है और व्यवहारकी अबाधकता हो ज्ञानको यथार्थताका प्रमाण है । वस्तु का स्वरूप निश्चित करनेका एकमात्र साधन यथार्थज्ञान है और वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। न तो सामान्य रहित विशेषको प्रतीति होती है और न विशेषरहित सामान्यको हो । सामान्य और विशेष दोनों परस्परमें सापेक्ष है । इस काण्डके अन्त में भगवान् जिनवचन --- अनेकान्तकी भद्र-कामना की हैभद्दे मिच्छादंसणसमूह मह्यस्य अमयसारस्स | traणस्स भगवओ संविग्गसुहागिम्मस्स ||
भगवान् जिनवचन-अनेकान्तशासनका भद्र हो - सबका कल्याण करता हुआ सदा विद्यमान रहे, जो मिथ्यादर्शनों के समूहका मथक - उनमें परस्पर सापेक्षता स्थापक है, अमृतसार है और निष्पक्ष जनों द्वारा सरलतासे ज्ञातव्य है ।
इस ग्रन्थकी प्राकृत भाषा महाराष्ट्री है । 'य' श्रुतिका पालन सर्वत्र हुआ है । 'य' श्रुतिकी यह व्यवस्था वररुचिके व्याकरणमें नहीं मिलती । प्राकृत वैयाकरणों में आचार्य हेमचन्द्रने हो 'य' श्रुतिका विधान किया है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों की प्राकृत अर्धमागधी है, पर इस ग्रन्थको प्राकृत महाराष्ट्री है, जो शौरसेनीका एक उपभेद है । इस भाषाका प्रयोग ई० सन् की चौथी पांचवीं शताब्दी से हुआ है । नाटकीय शौरसेनी और जैन शौरसेनीके प्रभावसे ही उक्त महाराष्ष्ट्रीका भेद विकसित हुआ है। यहां 'य' श्रुतिके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं
" तित्थयर ( तीर्थंकर) ११३, वयण ( वदन) १३, सुमभेया (सूक्ष्मभेदा), पयडी (प्रकृति) ११४, जयवाया ( नयवादाः ) ११२५ वियप्पं (विकल्प) ११३३, सत्तवियप्पो ( सप्तविकल्पः ) ११४१, जयव्वं ( यतितव्यम् ) ३६५ सुयणाण (श्रुतज्ञान) २२७ सयले (सकले ) २२२८, सायारं (साकार) २११० सवा (सदा) २११०, यि (निज) २।१४ आदि ।
१. सम्मतिसूत्र, अहमदाबाद संस्करण, ३।१-२ ॥ २. वही, ३६९ ॥
२१४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्पर।