________________
___महाराष्ट्रीकी अन्य प्रवृत्तियोंमें प्रयमा विभकिके एक वचनमें ओकारका पाया जाना भी उपलब्ध है । यथा-पजणओ (पर्यायापिकनयः) २३, विसओ (विषयः) १४, बवहारो (व्यवहारः) १२४, दविओवओगो (द्रव्योपयोगः) २८, मगो (संसार १५, समूहसिद्धो (समहसिङ्गः ॥२७, अत्थो (अर्थः) ११२७ अगाइणिणो (अनादिनिधनः) ११३७ आदि।
सप्तभी विभक्तिके एक वचनमें 'म्मि'का व्यवहार भी पाया जाता है–थोरम्मि, ससमयम्मि ३२, तम्मि ३।४, दंसम्मि २२४, चक्खुम्मि २०२४ आदि ।
इस ग्रन्थकी उपलब्ध पाण्डुलिपियों में पाठान्सर भी प्राप्त होते हैं । यथा-'सुयणाणं के स्थान पर 'सुदणाण', 'सयले के स्थान पर 'सगले' और 'सायार के स्थान पर 'सागारं' जैसे प्रयोग प्राप्त हैं। इन प्रयोगोंसे प्रतीत होता है कि इस प्रकारके रूप दिगम्बर आगमोंकी शौरसेनीके हैं। इस ग्रन्थ पर दिगम्बराचार्य सुमतिदेव द्वारा विरचित एक टोकाका उल्लेख आचार्य वादिरजने किया है, जो अनुपलब्ध है। दूसरी टोका अभयदेव कुत २५०० श्लोक प्रमाण तत्त्व. विधायिनी नामकी उपलब्ध है। कल्याणमन्दिर
इस स्तोत्रमें ४४ पद्य हैं । रचयिताका नाम कुमुदचन्द्र आया है, जो सिद्धसेनका दीक्षानाम है। लिखा है
__जननयनकुमुदचन्द्रप्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो मुक्त्वा ।
ते विगलितमलनिचया अधिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥ -पद्य ४४ इस पद्यमें श्लेष द्वारा कविका नाम अभिव्यक्त किया गया है। स्तोत्रमें पार्श्वनाथको स्तति की गयी है । प्रारम्भमें कविने अपनी अल्पज्ञताका निर्देश किया है । भगवान्के मात्र नामोच्चारणका वर्णन करता हुआ कवि कहता है--
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन ! संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाचे प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि 117
हे देव ! आपके स्तवनकी अचिन्त्य महिमा है। आपका नाममात्र भी जीवोंको संसारके दुःखोंसे बचा लेता है। जिस प्रकार ग्रीष्मर्तमें धपसे पीड़ित व्यक्तिको, कमलयुक्त सरोवर तो सुख पहुंचाते ही हैं, पर उन सरोवरोंको शीतलवायु भी सुख पहुँचाती है। ___ कामजयी वीतरागका महत्व प्रतिपादित करते हुए कविने समीक्षात्मक और तुलनात्मक शैलीमें लिखा है१. कल्याणमन्दिर, पञ्च ७ ।
अतषर और सारस्वताचार्य : २१५