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छवखंडागम के सूत्रोंके अवलोकनसे प्रकट होता है कि प्रथम खण्ड जीवस्थानके आदिमे सत्प्ररूपणा सूत्रोंके रचयिता पुष्पदन्ताचार्यने मंगलाचरण किया है और तदनुसार भलाटीकाकार वोरसेन स्वामीने भो श्रुतावतार आदिका कथन किया है। षट्खण्डागम नूतने चौथे व वेदना के आदिमें पुनः मंगल किया है और बबलाकारने भी जीवस्थानके समान ही कर्ता, निमित्त, श्रुतावतार आदिकी पुनः चर्चा की है। इससे यह षट्खण्डागमग्रन्थ दो भागों में विभक्त प्रतीत होता है । पहले भागमें आदिके तीन खण्ड हैं और द्वितीय भाग में अन्तके तीन खण्ड है। इस द्वितीय भाग में ही महाकर्म प्रकृतिप्राभृतके २४ अधिकारोंका वर्णन किया गया है । डा० हीरालालजीने इस द्वितीय चण्डकी विशेष संज्ञा सत्कर्मप्राभृत बतायी है। वस्तुतः आचार्य भूतबलिने षट्खण्डागमके जीवस्थानको छोड़कर शेष समस्त खण्डोकी रचना की है। कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें ग्रन्थावतारका वर्णन करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि धरसेनाचार्यने गिरिनगरकी चन्द्रगुफा में भूतबलि और पुष्पदन्तका समग्र महाकर्म प्रकृतिप्राभृत समर्पित कर दिया। तत्पश्वात् भूतबलि भट्टारकने श्रुत-नदी के प्रवाहके विच्छेदके भय से भव्य जीवोंके उद्धारके लिये महाकर्म प्रकृतिप्राभूतका उपसंहार करके छः खण्ड किये।"
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में यह लिखा है कि भूतबलि आचार्यने षट्खण्डागमकी रचना कर उसे ग्रन्थरूपमें निबद्ध किया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीको उसकी पूजा की और इसी कारण यह पञ्चमी श्रुतपञ्चमी के नामसे विख्यात हुई। तत्पश्चात् भूतबलिने उस खण्डागमसूत्र के साथ जिनपालितको पुष्पदन्त गुरुके पास भेजा । जिनपालितके हाथ में षट्खण्डागमप्रन्धको देखकर मेरे द्वारा चिन्तित कार्य सम्पन्न हुआ, यह अवगत कर पुष्पदन्त गुरुने भी श्रुतभक्ति अनुरागस पुलकित होकर श्रुत-पंचमी के दिन उक्त ग्रन्थको पूजा को ।
श्रुतावतारकं उक्त कथनसे यही प्रमाणित होता है कि पुष्पदन्ताचार्यने पट्खण्डागमकी रूपरेखा निर्धारित कर सत्प्ररूपणा के सूत्रों की रचना की थी और शेष भागको भूतबलिने समाप्त किया था ।
छवखंडागमके अवलोकनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि दूसरे खण्ड खुद्दाबन्धसे छठे खण्ड तक यह भूतबलि द्वारा रचा गया है। चतुर्थ खण्ड वेदनाके १. 'तदो भूतलिभडारएण सुदाईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगानुग्गद्दटुं महाकम्मपादसंहरिण क्खंडाणि कयाणि ।'
-- षट्खण्डा०, घवला, पुस्तक ९, पू० १३३ ।
५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा