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भूतबलिके व्यक्तित्व और ज्ञानके सम्बन्ध में
प्रकाश
पड़ता है ! बताया है-- भूतबलि भट्टारक असंबद्ध बात नहीं कह सकते । यतः महाकर्म प्रकृति प्राभृत रूपी अमृतपान से उनका समस्त राग-द्वेष-मोह दूर हो गया है। "ण चासंबद्धं भूदबलिभहारओ परूवेदि महाकम्मपडिपा हुड अभियवाणेण ओसारिदा सेसरागदोसमोहत्तादो ।""
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि भूतबलि महाकर्मप्रकृतिभूतके पूर्ण ज्ञाता थे । इसलिये उनके द्वारा रचित सिद्धान्तग्रन्थ सर्वथा निर्दोष और अर्थपूर्ण है । इन्होंने २४ अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका ज्ञान प्राप्त किया था । बताया है---
"चउबीसअणियोगद्दारसत्वमहाकम्मपयडिपाहडपा रयस्स
भूदवलि
भयवंतस्स ।" "
समय-निर्धारण
भूतबलिका समय आचार्य पुष्पदन्तका समय हो है। दोनोंने एक साथ घरसेनाचार्य से सिद्धान्त-प्रन्थों का अध्ययन किया और अंकुलेश्वरमें साथ-साथ वर्षावास किया। पुष्पदन्त द्वारा रचित प्राप्त सूत्रों के पश्चात् भूतबलिने षट्खण्डागमके शेष भागकी रचना को । डा० ज्योतिप्रसादने भूतबलिका समय ई० सन् ६६९० तक माना है और षट्खण्डागमका संकलन ई० सन् ७५ स्वीकार किया है। प्राकृतपट्टावली, नन्दिसंघकी गुर्वावली आदि प्रमाणोंके अनुसार भूतबलिका समय ई० सन्की प्रथम शताब्दीका अन्त और द्वितीय शताब्दीका आरंभ आता है । डा० होरालाल जैनने धवलाको प्रस्तावना में वीर नि०सं० ६१४ और ६८३के बीच उक्त आचार्यों का काल निर्धारित किया है। अतएव भूतबलिका समय ई० सन् प्रथम शताब्दीका अन्तिम चरण (ई. ८७के लगभग) अवगत होता है । रचना-शक्ति और पाण्डित्य
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे ज्ञात होता है कि भूतबलिने पुष्पदन्त विरचित सूत्रोंको मिलाकर पाँच खण्डोंके छः हजार सूत्र रचे और तत्पश्चात् महाबन्ध नामक छठे खण्डको तीस हजार सूत्रग्रंथरूप रचना की । "
१. षट्खण्डाभम, भवलाटीका, पुस्तक १०, पृ० २७४ - २७५ ।
२. वही, पुस्तक १४, पृ० १३४ ।
३. The Jaina Sources of the History of Ancient India, p. 114. ४. पट्खण्डागम, पवाटीका, पुस्तक १ प्रस्तावना पृ० २२- ३१
५. श्रुतावसार, पच १२९
तर और सारस्वताचार्य : ५७