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धरसेनाचार्यसे सिद्धान्त-विषयका अध्ययन किया था। भूतबलिने अंकुलेश्वरमें चातुर्मास समान कर द्रविड़ देशमें जाकर श्रुतका निर्माण किया । धवलाटीकामें आचार्य वीरसेनने पुष्पदन्तके पश्चात् भूसबलिको नमस्कार किया है।
पणमह कय-भूय-बलि भूयबलि केस-वास-परिभूय-बलि ।
विणिहय-बम्मह-पसरं वडढाविय-विमल-गाण-बम्मह-पसरं ।' अर्थात् जो भूत-प्राणीमात्रके द्वारा पूजे गये हैं अथवा भूत नामक व्यन्तर जातिके देवों द्वारा पूजित हैं; जिन्होंने अपने केशपाश अर्थात् सुन्दर बालोंसे बलिजरा आदिसे उत्पन्न होने वाली शिथिलताको परिभत-तिरस्कृत कर दिया है। जिन्होंने कामदेवके प्रसारको नष्ट कर दिया है और निर्मल ज्ञानके द्वारा ब्रह्मचर्यको वृद्धिंगत कर लिया है उन भूतबलि नामक आचार्यको प्रणाम करो।
उपर्युक्त गाथामें भूतबलिके शारीरिक और आत्मिक तेजका वर्णन किया है । भूतबलिको आन्तरिक ऊर्जा इतनी बढ़ी हई थी, जिससे ब्रह्मचर्यजन्य सभी उपलब्धियां उन्हें हस्तंगत हो गई थीं । ऋद्धि और तपस्याके कारण प्राणीमात्र उनको पूजाप्रतिष्ठा करता था। इस प्रकार आचार्य वीरसेनने आचार्य भूतबलीके व्यक्तित्वकी एक स्पष्ट रेखा अंकित की है। सौम्य आकृतिके साथ भूतबलिके केश अत्यन्त संयत और सुन्दर थे । केशोंकी कृष्णता और स्निग्धताके कारण वे युवा ही प्रतीत होते थे। ___ श्रवणबेलगोलके एक शिलालेख मे पुष्पदन्तके साथ भूतबलिको भी अहंद्बलिका शिष्य कहा है। इस कथनसे ऐसा ज्ञात होता है कि भूतलके दोक्षागुरु अहंबलि और शिक्षागुरु धरसेनाचार्य रहे होंगे । लिखा है
यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्य-द्वितयेन रेजे । फलप्रदानाय जगज्जनानां प्राप्तोऽङ्कराभ्यामिव कल्पभूजः ।। अर्हबलिस्सङ्घचतुर्विध स श्रीकोण्डकुन्दान्वयमूलसङ्घ 1
कालस्वभावादिह जायमानद्वेषेतराल्पोकरणाय चक्रे ।। इन अभिलेखीय पद्योंके आधारपर अहंबलिको भूतबलिका गुरु मान लिया आय तो कोई हानि नहीं है । समयक्रमानुसार अर्हलि और पुष्पदन्तके समयमें २१ + १९ = ४०वर्षका अन्तर पड़ता है जिससे अर्हलिका भूतबलि और पुष्पदन्तके समसामयिक होनेमें कोई बाधा नहीं है।
१. षट्खण्डागम, धवलाटीका, प्रथम पुस्तक, श्लोक ६. २. प्रवणबेलगोल अभिलेख संख्या १०५, पञ्च २५-२६.
५६ : तोधकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा