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सूत्रपाठका प्रचार श्वेताम्बर परम्परा है। इन दोनों सूबपाठोंमें जो अन्तर है, वह निम्न प्रकार अवगत किया जा सकता है--
दोनों पाठोंके अनुसार दशों अध्यायोंके मूत्रोंकी संख्याप्रथमपाठ--३३ +५३ + ३१ + ४२+४२ + २७ + ३९ + २६ + ४७ +९ - ३५७ द्वित्तीयपाठ-३५ + १२+१८+५३+४४ + २६ + ३४ + २६ + ४९ +७% ३४४
दोनों पाठोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि प्रथम अध्यायमें दो सूत्रोंकी हीनाधिकता है । प्रथम पाठको अपेक्षा द्वितीय पाठमें दो सूत्र अधिक हैं। प्रथम सूत्र 'द्विविघोऽवधिः' [११२१]-अवधिज्ञानके दो मेद हैं | इस सूत्र में कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है । अन्तिम दो सूविचारणीय हैं-"नेगमसंग्रहव्यवहारजसत्रशब्दा नयाः"[१३४] आधशब्दो द्वित्रिभेदो' [१॥३५] ये दोनों सूत्र द्वितीय पाठमें मिलते हैं। प्रथम पाठमें नयके सात भेद माने गये हैं, और इन सातोंके नामोंको बतलाने वाला एक ही सूत्र हैं। पर दमरे पाठके अनुसार नयके मूल पाँच मेद है, और उनमें से प्रथम 'गमनय'के दो भेद है और 'शब्दनय के साम्प्रत, समभिरुन और एवंभूत ये तोन मेद हैं। सप्तनयको परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों हो बागमोंमें पायी जाती है। तत्त्वार्थसूत्रमें यह जो द्वितीय मान्यता आयो है, उसका समन्वय दिगम्बर और प्येताम्बर दोनों ही परम्पराओंके साथ सम्भव नहीं है । यह तो एक नयो परम्परा है, जिसका आरम्भ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसे होता है। ___ पन्द्रहवें सूत्रमें मत्तिमानका तीसरा मेद भाष्यके अनुसार 'अपाय है और सर्वार्थसिद्धिके अनुसार 'अवाय' है । पंडित सुखलालजी द्वारा सम्पादित 'तत्त्वाथंसूत्र में 'अपाय के स्थानपर 'अवाय पाठ ही मिलता है। नन्दिसूत्र में भी 'अवाय' पाठ है । अकलंकदेवने अपने तत्त्वावातिकमें दोनों पाठों में केवल शब्दभेद बतलाया है। किन्तु उभयपरम्परासम्मत प्राचीन पाठ 'अवाय' ही है, 'अपाय' नहीं। सोलहवें सत्र 'बहबहविष' आदिमें प्रथम पाठमें 'अनिसतानुक्त' पाठ है और दूसरी मान्यतामें 'अनिसृतासन्दिग्ध' पाठ है। इसी प्रकार अवधिज्ञानके दूसरे मेदके प्रतिपादक सूत्रमें प्रथमपाठमें 'क्षयोपशमनिमित्तः' पाठ है
और दूसरे में 'यथोक्तनिर्मितः' पाठ है। इन दोनों पाठोंके बाशयमें कोई अन्तर नहीं है।
द्वितीय अध्यायमें प्रथमपाठके अनुसार 'तेजसमपि' [२२४८ तथा शेषास्त्रिवेदाः [२।१२) ये दो सूत्र अधिक हैं। इसी तरह दूसरे सूत्रपाठमें 'उपयोगः स्पर्शादिषु' [२९] सूत्र अधिक है। शेष सूत्रों में समानता होते हुए भी कतिपय स्थलोंमें अन्तर पाया जाता है। प्रथम मूत्रपाठमें 'जीवभव्याभव्यस्खानि च'
वृतघर और सारस्वताचार्य : १६३