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[२७] पाया जाता है, और द्वितीय सूत्रपाठ में इसके स्थानपर 'जीवभव्याभव्यस्वादीनि च ' [२७] सूत्र है । प्रथम पाठमें जिन पारिणामिक मानोंका ग्रहण 'च' शब्दसे किया है, द्वितीय पाठ में उन्हींका ग्रहण आदि पदसे किया है । अकलंकदेवने आदिपदको सदोष बतलाया है ।"
संसारी जोवोके त्रस और स्थावर ये दो मेद आये हैं । स्थावरके पाँच भेद हैं। इनकी मान्यता दोनों सूत्रपाठोंमें तुल्य है, पर उसका अर्थ भाष्य में बताया है कि जो चलता है, वह उस है । इस अपेक्षासे दूसरे सूत्रपाठ में तैजसकायिक और वायुकायिकको भी त्रप कहा गया है, क्योंकि वायु और अग्नि कायमें चलनकिया पायी जाती है। अतएव द्वितीय अध्यायके तेरह और चौदहवें सूत्रमें अन्तर पड़ गया है। द्वितीय अध्यायके अन्य सूत्रोंमें मो कतिपय स्थलोंपर अन्तर विद्यमान है |
प्रथमसूत्रपाठ
१. एकसमयाऽविग्रहा ||२९|| २. एकं द्वो त्रीन्वाऽनाहारक ||३०|| ३. जराभाडोतानां गर्भः ॥ ४. देवनारकाणामुपपादः ॥३४॥ परं परं सूक्ष्मम् ||३७ ६. ओपपादिक- चरमोत्तमदेहा संख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥ ५३ ॥
५.
द्वितीय सूत्रपाठ
एक समयोऽविग्रहः
एकं द्वौ वाऽनाहारकः जरत्खण्डोतजानां गर्भः नारकदेवानामुपपासः
||३०||
॥३१॥
१०३४।।
॥३५॥
||३८||
परं परं सूक्ष्मम्
औपपातिकच रमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः
।।५२।।
इन सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तर रहनेके कारण सैद्धान्तिक दृष्टिसे भी मतभिन्नता है |
तृतीय अध्याय में प्रथम पाठके अनुसार द्वितीय पाठसे २१ सूत्र अधिक है । द्वितीय पाठमें वे सूत्र नहीं हैं। तृतीय अध्यायके प्रथम सूत्रके पाठ में थोड़ा अन्तर पाया जाता है । द्वितीय पाठ में 'अघोघ' और 'पृथुतरा:' पाठ है जबकि पहले में 'पृथुतराः' पाठ नहीं है। अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवात्तिकमें इस पाठकी आलोचना की है और उसे सदोष बताया है ।
चतुरं अध्यायमें स्वर्गक संख्या- सूचक सूत्रमें अन्तर है। प्रथम पाठके अनु सार सोलह स्वर्गं गिनाये गये हैं, पर द्वित्तीय पाठके अनुसार बारह ही स्वर्ग परिगमित हैं । स्वर्ग देवोंमें प्रविचारको बतलाने वाले सूत्रमें 'शेषाः स्पर्शरूप
१. सत्स्वार्थवासिक, पृ० ११३ ।
२. पंडित सुखलालजी द्वारा सम्पादित तस्वार्थसूत्र की भूमिका ।
१६४ : सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
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