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शब्दमनःप्रयीचारा' [४८] के स्थानपर 'शेषाः प्रविचारा द्वयोद्वयोः [४९] पाठ आया है। इस द्वितीयपाठमें 'द्वयोदयोः' पाठ अधिक है। बकलंकने इस पाठकी आलोचनाकर इसे आर्षविरुद्ध बतलाया है। प्रथम सूत्रपाठमें लौकान्तिक देवोंकी स्थितिका प्रतिपादक सूत्र आया है, पर द्वित्तीय सूत्रपाठमें वह नहीं है ।
पाँचवें अध्यायमें द्वितीय सूत्रपाठमें "द्रव्याणि जीवाश्च" यह एक सूत्र है। किन्तु प्रथम सूत्रपाठमें 'द्रव्याणि' [पा२] और 'जीवाश्च' [५३] ये दो सूत्र हैं। तत्त्वार्थवातिकमें अफलंकदेवने 'द्रव्याणि जीवाः'-इस प्रकारके एक सूत्रको मीमांसा करते हुए एक ही सूत्र रखनेका समर्थन किया है । इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठके 'असंख्ययाः प्रदेशाः धर्माधर्मकजीवानाम्' [५३८] ये दो सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें स्वीकृत हैं । प्रथम सूत्रपाठमें 'सद् द्रव्यलक्षणम्' [५।२९] यह सूत्र आया है । पर द्वितीय सूत्रपाठमें यह सूत्र नहीं मिलता। इस सूफा आशय भाष्यकारने अवश्य स्पष्ट किया है।
इसी प्रकार प्रथम सत्रपाठमें "बन्धेऽधिको पारिणामिको" [५।३६) सूत्र आया है । इसके स्थानपर द्वितीय सूत्रपाठमें "बन्धे समधिको पारिणामिको" [५३६] सूत्र है। आचार्य अकलंकदेवने 'समधिको' पाठको आलोचना करते हए उसे आर्षविरुद्ध बतलाया है और अपने पक्ष के समर्थनमें खटखण्डागमका प्रमाण दिया है।
प्रथम सत्रपाठके "कालश्च" [५.३९/ सूत्रके स्थानपर दूसरे सूत्रपाठमें "कालाचेत्येके" [५।३८] सूत्र आया है। इस अन्तरका कारण यह है कि दिग. म्बर परम्परामें कालको द्रव्य माना गया है। पर श्वेताम्बर पश्पयमें कालद्रव्यके सम्बन्धमें मतभेद है।
द्वितीय सूत्रपाठके 'अनादिरादिमांश्च' [५।४२), 'रूपिब्वादिमान् [५।४३] और 'योगोपयोगी जोवेषु' ५४४] ये तीन सूत्र प्रथम सूत्रपाठमें नहीं है। इन सूत्रोंमें बाये हुए सिद्धान्तोंको समीक्षा अकलकदेवने की है।
षष्ठ अध्यायमें बाये हुए सूत्र दोनों ही सूत्रपाठोंमें सिद्धान्तको दृष्टिसे समान हैं । पर कहीं-कहीं प्रथम सूत्रपाके एक ही सूत्रके दो सूत्र द्वितीय सूत्रपाठये मिलते हैं । प्रथम सूत्रपाठमें "शुमः पुण्यस्याशुभः पापस्य" [६।३] सूत्र यामाहे । द्वितीय सूत्रपाठमें इसके "शुभः पुण्यस्य" [३३] और "अशुमः पापस्य" ६४] ये दो सत्र मिलते हैं। इसी प्रकार प्रथम सत्रपाठमें "अल्पारम्भपरिपहत्वं मानुषस्य" [६३१७) और "स्वभावमार्दवञ्च" [१११८दो सूत्र थाये है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें इन दोनोंके स्थानपर "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवावं च मानुषस्य" [६।१८] यह एक सूत्र प्राप्त होता है ।
श्रुतचर और सारस्वताचार्य : १६५