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तृतीय-चतुर्थ अध्यायमें लोकका वर्णन किया गया है । ग्रहकेन्द्रवृत्त, ग्रहकक्षाएँ, ग्रहोंको गति, चार-क्षेत्र आदि चर्चाएं तिलोयपण्णत्तिके तुल्य हैं। लोकाकारका वर्णन आचार्य ने मौलिक रूपमें किया है ।
मौलिक तथ्योंके समावेशको दृष्टिसे पंचम अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण है । द्रव्य, गुण भोर पोंका राष्ट्र और gf शिवनन किया गया है । 'व्यत्वयोगात् द्रव्यम्' और 'गुण-समुदायो द्रव्यम्'की समीक्षा सुन्दर रूपमें की गयो है । "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्' (५॥३०)-सूत्रको व्याख्यामें सोदाहरण उत्पाद, व्यय और नौव्यकी व्याख्या की गयी है तथा "अपितानपितसिद्धेः" (५॥३२) सूत्रकी वृत्तिमें अनेकान्तात्मक वस्तुको सिद्धि की गयी है।
षष्ठ और सप्तम अध्यायमें दर्शनमोहनीयकर्मके आस्रवके कारणोंका विवेचन करते हुए केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवोंके अवर्णवादप्रसंगमें श्वेताम्बरमान्यताओंकी समीक्षा की है । सप्तम अध्यायके प्रथम सूत्रमें रात्रि-भोजनत्याग नामक षष्ठ अणुव्रतको समीक्षा की गयी है। सप्तम अध्यायके त्रयोदश सूत्रके व्याख्यानमें आचार्यने हिंसा और अहिंसाके स्वरूपका विवेचन करते हुए उनके समर्थनमें अनेक गाथाएं उत्त की है। गुद्धपिच्छाचार्य ने प्रमादयोगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहा है । पूज्यपादने प्रमत्तयोग और प्राणका व्यपरोपण इन दोनों पदोंका विवेचन करते हुए केवल प्राणोंके घातमात्रको हिंसा नहीं कहा है । जहाँ प्रमत्तयोग है वहाँ प्राणोंका घात न होनेपर भी हिंसा होती है, क्योंकि धातकका भाव हिंसारूप है ।
अष्टम अध्यायमें कर्मबन्धका और कर्मो के भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है । प्रथम सूत्रमें बन्धके पाँच कारण बतलाये हैं। उनकी व्याख्यामें पूज्यपादने मिथ्यात्वके पांच भेदोंका कथन करते हुए पुरुषाद्वैत एवं श्वेताम्बरीय निर्ग्रन्थसग्नन्थ, केवली-कवलाहार तथा स्त्रो-मोक्ष सम्बन्धो मान्यताको भी विपरीत मिथ्यात्व कहा है। इस अध्यायके अन्य सूत्रोंका व्याख्यान भी महत्त्वपूर्ण है । पदोंको सार्थकताओंके विवेचनके साथ पारिभाषिक शब्दोंके निर्वचन विशेष उल्लेख्य हैं। ___ भवम अध्यायमें संवर, निर्जरा और उनके साधन गुप्ति आदिका विशद विवेचन है। दशममें मोक्ष और मुक्त जीवोंके ऊध्वंगमनका प्रतिपादन है। ___ इस समग्न ग्रन्थको शैली वर्णनात्मक होते हुए भी सूत्रगत पदोंकी सार्थकता. के निरूपणके कारण भाष्यके तुल्य है । निश्चयतः पूज्यपादको तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंका विषयगत अनुगमन गहरा और तलस्पर्शी था । २२८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा