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४. समाधितन्त्र---इस ग्रन्थका दूसरा नाम समाधिशतक है । इसमें १०५ पद्य हैं | अध्यात्मविषयका बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है। आचार्य पूज्यपादने अपने इस ग्रन्थको विषयवस्तू कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थोंसे हो ग्रहण की है। अनेक पद्य तो रूपान्तर जैसे प्रात्त होते हैं। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करते है
यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति ।
जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥' इस पद्यकी समता निम्न गाथामें है
णियभावं ण वि मुंचइ परभाव णेव गिहए केई ।
जाणदि पस्सदि सच सोहं इदि चित्तए णाणी ॥' बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माके स्वरूपका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है । बहिरात्मभाव-मिथ्यात्वका त्याग कर अन्तरात्मा बन कर परमात्मपदको प्राप्तिके लिए प्रयास करना साधकका परम कर्तव्य है। आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और कर्मसंयोगका इस ग्रन्थम संक्षेपमें हृदयग्नाहो विवचन किया गया है।
५. इष्टोपवेश-इस आध्यात्मकाव्यम इष्ट-आत्माके स्वरूपका परिचय प्रस्तुत किया गया है। ५१ पद्योंमें पूज्यपादने अध्यात्मसागरको गागरमें भर देनेकी कहावतको चरितार्थ किया है। इसकी रचनाका एकमात्र हतु यही है कि संसारी आत्मा अपने स्वरूपको पहचानकर शरीर, इन्द्रिय एवं सांसारिक अन्य पदार्थोसे अपनेको भिन्न अनुभव करने लगे। असावधान बना प्राणी विषय-भोगोंमें ही अपने समस्त जीवनको व्यतीत न कर दे, इस दुष्टिसे आचापने स्वयं ग्रन्थके अन्त में लिखा है
इष्टोपदेशमिति सम्यगधोत्य धीमान् । मानापमानसमा स्वमताद्वितन्य ॥ मुक्ताग्रहो विनिवसन्सजने बने बा ।
मुक्तिश्चियं निरूपमामुपयाति भव्यः ।। इस ग्रन्थके अध्ययनसे आत्माको शक्ति विकसित हो जाती है और स्वात्मानुभूतिके आधिक्यके कारण मान-अपमान, लाभ-अलाभ, हर्ष-विषाद आदिमें
१. समाधितंत्र, पद्य ३०, वीरसेवामन्दिर-संस्करण 1 २. नियमसार, गाथा ९७ । ३. इष्टोपदेश, सूरत-संस्करण, पद्य ५१ 1
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २१९