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समसाभाव प्राप्त होता है। संसारको यथार्थ स्थितिका परिज्ञान प्राप्त होनेसे राग, द्वेष, मोहकी परिणति घटती है। इस लघुकाय ग्रन्थमें समयसारको गाथाओंका सार अंकित किया गया है । शैली सरल और प्रवाहमय है।
६. जैनेन्द्र व्याकरण-श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों एवं महाकवि धनंजयके नाममालाके निर्देशसे जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता पज्यपाद सिद्ध होते हैं। गुणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्षमान और हेमशब्दानुशासनके लघुन्यासरचयिता कनकप्रभ भी जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिताका नाम देवनन्दि बतात हैं।
अभिलेखोंसे जैनेन्द्रन्यासक रचयिता भी पूज्यपाद अवगत होते है । पर यह ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है।
जैनेन्द्र व्याकरणके दो सूत्रपाठ उपलब्ध हैं-एकमें तीन सहस्र सूत्र हैं, और दूसरेमें लगभग तीन हजार सात सौ । पंडित नायूरामजी प्रमाने यह निष्कर्ष निकाला है कि देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ सूत्रपाठ वहीं है, जिसपर अभयनन्दिने अपनी वृत्ति लिखो है :
जैनेन्द्र व्याकरणमें पांच अध्याय हैं और प्रत्येक अध्यायमें चार-चार पाद हैं । इसका पहला सूत्र महत्त्वपूर्ण है। इसमें सिद्धिरनेकान्तात् सूत्रसे समस्त शब्दोंका साधुत्व अनेकान्तद्वारा स्वीकार किया है, क्योंकि शब्दमें नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुभयत्व आदि विभिन्न धर्म रहते हैं। इन नाना धमोसे विशिष्ट धर्मीरूप शब्दकी सिद्धि अनेकान्तसे ही सम्भव है। एकान्तसिद्धान्तसे अनेकधर्मविशिष्ट शब्दोंका साधुत्व नहीं बतलाया जा सकता । यहाँ अनेकान्तके अन्तर्गत लोकप्रवृत्तिको भी मान्यता दी है। लोकप्रसिद्धिपर आश्रित शब्दव्यवहार भी मान्य है।
जैनेन्द्रका संज्ञाप्रकरण सांकेतिक है । इसमें धातु, प्रत्यय, प्रातिपदिक, विभक्ति, समास आदि महासंज्ञाओंके लिए बीजगणित जैसी अतिसंक्षिप्त संकेतपूर्ण संशाएँ आयी हैं। इस व्याकरणमें उपसर्ग के लिए 'गि', अव्ययके लिए 'झो।' समासके लिए 'सः', वृद्धिके लिए 'ऐप', गुणके लिए 'एप', सम्प्रसारणके लिए 'जिः', प्रथमा विभक्तिके लिए 'या', द्वितीयाके लिए 'इ'', तृतीया विभक्तिके लिए 'म', चतुर्थीके लिए 'अप', पञ्चमीके लिए 'का', षष्ठीके लिए 'ता', सप्तमोके लिए 'इप' और सम्बोधनके लिए किः' को संज्ञाएं बतलायी गयो हैं। निपातके लिये 'निः', दीर्घके लिये 'दी:', प्रगृह्यके लिए 'दिः', उत्तरपदके लिये 'धुः', सर्वनाम स्थानके लिए 'धम्', उपसजनके लिए 'न्यक्', प्लुत्के लिए 'पः', ह्रस्यके लिये 'प्रः', प्रत्ययके लिये 'त्यः', प्रातिपदिकके लिए 'मृत्', परस्मैपदके २३० : सीकर महावीर और उनकी आघाय-परम्परा