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लिये कृतसंकल्प होना आचार्यकी प्रमुख विशेषता है । वाङ्मयके सृजनका दायित्व आचार्य परम्पराका ही है । यही परम्परा अगणित वर्षों तक तीर्थंकर प्रवचनको जन-मानसमें प्रविष्ट कराती है। अत: आचार्यपरम्पराका दिव्य फल वाङ्मय है ।
वाङ्मयके अन्तर्गत मानवके सभी प्रकारके आचार-विचार, भावनाओं, मनोवृत्तियों एवं उसके समस्त कार्यकलापोंकी गणना की जाती है । दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सैद्धान्तिक, आध्यात्मिक एवं सौन्दर्यबोध-सम्बन्धी धारणाओं का समावेश भी वाङ्मयमें होता है । वाङ्मयका विषय-विस्तार उस वटवृक्ष के समान है, जो अनेक तनोंके रूपमें विस्तार पाता है । व्यक्तित्वके निर्माण में जिस साधनाको आवश्यकता है, उस साधनाका परिज्ञान भी वाङ्मयके द्वारा ही प्राप्त किया जाता है । मानव परिवेशमें रहकर संस्कारोंका अर्जन करता है और इन अर्जित संस्कारोंसे अपनी क्रिया-प्रतिक्रियाओं की अभिव्यञ्जना करता है । फलतः जीवनके विकास और उत्कर्ष में जिस प्रकारके विचारोंकी आवश्यकता होता है, उन विचारीका ग्रहण भी वाङ्मयके धरातलसे किया जाता है। विश्व और जीवन के प्रतिबिम्बको यथार्थ अभिव्यञ्जना भी वाङ्मयमें होती है। जबतक भाषाका सुगठित रूप विचारोंको प्राप्त नहीं होता, तबसक वाङ्मयकी अवतारणा संभव नहीं होती । शब्द और अर्थका परस्परमें ऐसा सम्बन्ध है कि अमूतं अर्थ शब्दोंकी मूर्ति में ही जीवन्त होता है । असएव जीवनको आन्दोलित, संचालित और क्रियाशील बनानेके लिये वाङ्मयके निर्माणकी आवश्यकता रहती है ।
जैनाचार्यों द्वारा रचित वाङ्मय बहुत विशाल और व्यापक है । इसे आगम की भाषा में श्रुतज्ञान कहा गया है। भगवान् महावीरकी वाणीको हृदयंगमकर उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरने बारह अंगोंमें उस वाणीरूप समस्त वाङ्मयको निबद्ध किया । अतः वाङ्मयके अर्थकर्त्ता तो स्वयं महावीर हैं, पर ग्रन्थकर्त्ता गौतम गणधर हैं । पट्खण्डागमको घवलाटीकामें बताया है कि श्रुतज्ञानके कर्त्ता दो प्रकारके है -- १. अर्थकर्त्ता और २. ग्रन्थकर्त्ता । भावश्रुत और अर्थपदोंके कर्त्ता तीर्थंकर हैं । तार्थंकर के निमित्तसे गौतम इन्द्रभूति गणधर श्रुतपर्यायसे परिणत हुए । अतएव वे द्रव्यश्रुतके कर्त्ता हैं। आशय यह है कि इस युग में आदि ग्रन्थकत्तां गौतम गणधर हैं। और इन्हींसे ग्रन्थ या वाङ्मय लिखने का कार्य प्रारम्भ हुआ है |
१. पट्खण्डागम अमला टीका, प्रथम पुस्तक, पृष्ठ ६०, ६५ ।
६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा