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तिलोयपण्णत्तोके अध्ययनसे भो उक्त कथनकी सिद्धि होती है। बताया है
महाबीर-भासियत्थो तस्सेि खेत्तम्मि तस्थ काले य । खायोवसम-विढिद-चउरमल-मईहि पुण्णोण ॥ लोयालोयाण तहा जीवाजीवाण विविह-विसयेसु । संदेहणासगत्यं उवगद-सिरिवीर-चलणमूलेण ॥ विमले गोदमगोते जादेणं इंदभूदिणामेण । चउवेद-पारगेणं सिस्सेण विसुखसोलेण ।। भावसुद-पज्जयेहि परिणद-मयिणा अवारसंगाणं । चोद्दसपुव्वाण सहा एक्कमुहुत्तेण विरचणा विहिदो॥ इय मूलतंतकत्ता सिरित्रीरो इंदभूदिविप्पवरो। उवतंते कत्तारी अणुतते सेसआइरिया ॥ णिण्णाटु-रायदोसा महेसिणो दिव्वसुत्तकत्तारो।
किं कारणं पणिदा कहिदु सुत्तस्य पामण्णं ।' अर्थात् तीर्थकर महावीर श्रुतके अर्थकर्ता हैं। इनके द्वारा उपदिष्ट पदार्थस्वरूप उसी क्षेत्र और उसी कालमें ज्ञानावरणके विशेष क्षयोपशमसे वृद्धिको प्राप्त निर्मल चार बुद्धियोंसे परिपूर्ण, लोक-अलोक और जोवाजोवादि विविध विषयों में उत्पन्न हुए सन्देहको नष्ट करनेवाले, शरणागत, निर्मल गौतम गोत्रमें उत्पन्न, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग, इस प्रकार चार वेदों अथवा ऋक्, यजु, साम और अथर्व इन चारों वेदोंमें पारंगत, विशुद्ध शील धारक, भावश्रुतरूप पयार्यसे बुद्धिको परिपक्वताको प्राप्त इन्द्रभूति नामक शिष्य अर्थात् गौतम गणधरने एक मुहूर्त में बारह अंग और चौदह पूर्वो की रचना की। इस प्रकार तीर्थकर महावीर मलतंत्रकर्ता, इन्द्रभूति गणधर उपतंत्रकर्ता एवं शेष आचार्य अनुतंत्रकर्ता हैं | स्पष्ट है कि वाङ्मयको मूर्तरूप देनेका सर्वप्रथम कार्य इन्द्रभूति गणधरने ही किया है। ___ जिस प्रकार सूर्यका आलोक प्राप्तकर मनुष्य अपने नेत्रीसे दूरवर्ती पदार्थका भी अवलोकन कर लेता है, उसी प्रकार पूर्वाचार्यों के द्वारा निबद्ध ज्ञानसूर्यका आलोक प्राप्त कर सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थो का बोध प्राप्त होता है । हरिवंशपुराणमें भी आगमतंत्रके मूलका तार्थंकर वर्धमान ही माने गये हैं। उत्तरतंत्रके रचयिता गौतम गणधर हैं और उत्तरोत्तरतंत्रके कर्ता अनेक आचार्य बताये गये हैं। यहाँ यह स्मरणीय है कि ये सभी आचार्य सर्वज्ञकी वाणीके अनुवादक ही है।
१. विलोयपण्णती ११७७-८१ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ७