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ये अपनी ओरसे ऐसे किसी नये तथ्यका प्रतिपादन नहीं करते, जो तीर्थंकरको दिव्यध्वनि से बहिर्भूत हो । केवल तीर्थंकरद्वारा प्रतिपादित तथ्योंको नये रूप और नयी शैलीमें अभिव्यक्त करते हैं। बताया है-
तथाहि मूलतन्त्रस्य कर्ता तीर्थंकरः स्वयम् । ततोऽप्युत्तरतन्त्रस्य गौतमाख्यो गणाग्रणीः ॥ उत्तरोत्तरतन्त्रस्य कतारो बह्यः क्रमात् ॥ प्रमाणं तेऽपि नः सर्वे सर्वज्ञोक्त्यनुवादिनः ॥
अतएव स्पष्ट है कि श्रुतका मूलकर्त्ता तीर्थंकरको हो माना गया है । उत्तरतंत्रकर्त्ता गणधर और उत्तरोत्तरतन्त्रकर्ता अन्य आचार्य हैं । श्रुत या आगमका स्वरूप, भेद एवं विषय
चक्षुरादि इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञानपूर्वक परोपदेश या परसाधनसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह श्रुतज्ञान कहलाता है । तस्वार्थवात्तिकमें बताया है - "श्रुतावरणक्षयोपशमाद्यन्तरङ्गबहिरङ्गहेतुसन्निधाने सति श्रूयते स्मेति श्रुतम् । कर्तरि श्रुतपरिणत आत्मैव शृणोतीति श्रुतम् । भेदविवक्षायां श्रूयतेऽनेनेति श्रुतम् श्रवणमात्रं वा । *
अर्थात् श्रुतावरणकर्मके क्षयोपशम होनेपर जो सुना जाय वह श्रुत है । कर्तृसाधनमें श्रुतपरिणत आत्मा श्रुत है। करणविषक्षामें जिससे सुना जाये, वह श्रुत है । भावसाधनमें श्रवणक्रिया श्रुत है ।
आचार्य विद्यानन्दने श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमरूप विगम- विशेषसे श्रवण करना श्रुत कहा है। इनके मतसे जो वाच्य अर्थ आप्तवाक्य द्वारा सुना जा चुका है वह अपने और वाच्यार्थको जानने वाला आगमज्ञानरूप श्रुतज्ञान है । श्रुतशब्द अनेक अर्थ होनेपर भी श्रुतज्ञान या आगमज्ञान के अर्थमें रूढ़ है ।
यथा
श्रुतेऽनेकार्थसासिद्धे ज्ञानमित्यनुवर्तनात् ।
श्रवणं हि श्रुतज्ञानं न पुनः शब्दमात्रकम् ।।"
आशय यह है कि श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमविशेषकी अपेक्षासे उत्पन्न हुआ और अविनाभावी अनेक अर्थान्तरोंका निरूपण करने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान
१. हरिवंशपुराण प्रथम सर्ग, पद्य ५६, ५७ ॥
२. तत्त्वार्थवार्तिक, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, १९/२० पृष्ठ ४४ ।
३. तस्वार्थश्लोकवालिक, बम्बई, १९१८ ६०, १९२० १० १६४ ३
८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा