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है। यह श्रुतज्ञान अमृतके समान हितकारी है, विषयवेदनासे संतप्त प्राणीके लिये परमोष है | कुन्दकुन्दने बताया है
जिणचयणमो सहमिण विसयसुह-विरेयणं अमिदभूयं । जर मरण-वाहिहरणं खयकरणं सव्व दुक्खाणं ॥
श्रुतज्ञानका अन्य नाम आगमज्ञान भी है। श्रुतके नामान्तरोंमें आगम, जिनवाणी, सरस्वती आदि नाम आये हैं । आगमके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए बताया है कि आप्तके वचन आदि निमित्तसे होने वाले अर्थज्ञानको आगम कहते हैं |
आचार्य सोमदेवने अपने उपासकाव्ययन में बताया है कि जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अवलम्बन लेकर हेय और उपादेय रूपसे त्रिकालवर्ती पदार्थों का ज्ञान कराता है, उसे आगम कहते हैं | तत्त्वज्ञाताओंका अभिमत है कि आगममं अविरोधरूपसे द्रव्यों तत्त्वां और गुण-पर्यायोंका कथन रहता है | लिखा है
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यापादयरूपेण चतुर्वर्गसमाश्रयात् ।
कालत्रयगतानर्थान्गमयन्नागमः स्मृतः ॥ '
यह ज्ञान प्रत्याह ज्या मूल है. जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञान अविसंवादों होने के कारण प्रमाणभूत है, उसी प्रकार आगमज्ञान भी अपने विषय में अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण है । स्वामी समन्तभद्रने केवलज्ञान और स्याद्वादमय श्रुतज्ञानको समस्त पदार्थों का समानरूपसे प्रकाशक माना हैं। दोनों केवल प्रत्यक्ष और परोक्षका ही अन्तर है :
स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्व - प्रकाशने ।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यत्तमं भवेत् ॥'
इसी तथ्यको पुष्टि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्रके कथनसे भी होती है
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मुदकेवलं च गाणं दोष्णवि सरिसाणि होत्ति जोहादी । सुदणाणं तु परोक्खं पञ्चवखं केवलं गाणं ।।
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१. दंसणपाहुड, गाया १७ ।
२. बालवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः --- परीक्षामुख ३१९५ ।
३. उपासकाध्ययन, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पद्य १०० । तमीमांसा, श्लोक १०५ ।
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५. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३६८ ।
तर और सारस्वताचार्य : ९