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समय एवं परिस्थिति विशेष में अपनी मौलिक प्रतिभाको वाणीके माध्यम से व्यक्त करते हैं । वाङ्मयको प्रेरणा व्यक्तिको ऐसो अनुभूति है जो उसके विशिष्ट अनुभवोंसे पोषित होकर समस्त सृष्टिको अपनी परिधि में आबद्ध कर लेती है । इस प्रकार आचार्यं वाङ्मयको धारणाओंको व्यष्टिसे समष्टिमें अवतरित करते हैं। फलतः समष्टिका सिद्धान्त व्यष्टिके लिये दिशा दर्शक हो जाता है ।
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सामान्यतः आचार्यके समक्ष परम्पराका सरोवर विद्यमान रहता है । इस सरोवरमें अपनी प्रतिभा द्वारा यथार्थ, यथार्थजन्य संघर्ष, क्रिया-प्रतिक्रियामूलक आदर्श एवं जीवन-साधना के विभिन्न मार्गो का निर्धारण तथा इस निर्धारणके लिये आवश्यक मानदण्डों के सरसिजका विकास करता है। जितने भी आचार्य दिखलाई पड़ते हैं उन सबने परम्पराको मुखरित करनेके लिये ही वाङ्मयका प्रणयन किया है। यह वाङमय अनुभूति, ज्ञान एवं चिन्तन इन तीनोंके समन्वयका प्रतिफल है | आचार्य वस्तु जगत् में पदार्थों और उनको प्रकृतियोंका अध्ययन कर उनके सम्बन्ध में विशिष्ट नियमित श्रृंखलाका निर्धारण करते हैं । आचार्य विश्लेषण द्वारा ही कार्य-कारणसम्बन्धोंका निर्धारण कर जीव, जगत् एवं उनके विभिन्न सम्बन्धोंका विवेचन करता है। वह गम्भीर दार्शनिक बन प्रकृति के रहस्योंका उद्घाटन भी करता है। श्रेय और प्रेय इन दोनों कूलोंका स्पर्श करता हुआ मानव किस प्रकार प्रेयसे श्रेयको ओर गतिशील होता है, यह विवेचन भी आचार्यकी लेखनी द्वारा निबद्ध किया जाता है। शब्द और अर्थ के योग में स्वानुभूतिके सत्यकी स्थापना कर आचार्य अभिव्यक्तिको एक नया परिवेश प्रदान करता है। इसके द्वारा की गई वीतराग कथा भी पाठक और श्रोताओंको अनुरंजित करती है। प्रेरणा देनेका कार्य भी आचार्यकी वाणी द्वारा होता है । अतः संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि परम्पराके द्वारा वेष्टित रहने पर भी आचार्य अपने स्वतन्त्र चिन्तनसे युगानुकूल स्वसमय और परसमयको मर्मस्पर्शी व्याख्याएँ प्रस्तुत करता है । जिस सूत्रार्थ ज्ञानको उसने परम्परासे प्राप्त किया है, उसो ज्ञानको सहज रूपमें व्यक्त कर उद्बोधनका कार्य करता है ।
आचार्य और वाङ्मय
आचार्य परम्पराका कार्य श्रुतज्ञानका संरक्षण है । तोर्थंकरके मुखसे निस्सृत वाणीको सर्वसाधारण तक पहुँचाने का कार्य आचार्य परम्पराद्वारा ही सम्पन्न होता है । परम्परासे मौखिकरूपमें प्राप्त ज्ञानको लिपिबद्ध रूप देना आचार्यपरम्पराका विशिष्ट कार्य है। पंचाचारको आराधना द्वारा आत्मोत्थान करना, शिष्योंको दीक्षित और अनुशासित करना एवं श्रुतपरम्परा के प्रचार और प्रसारके
श्रुतवर और सारस्वताचार्य: ५