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हे नाथ ! अर्हन् ! आप संसारके लिए शरण हैं! आप हमें अपना आश्रय प्रदान कर संसार परिभ्रमण से मुक करें; यतः आप पूर्णतया करुणानिधान है। हम चिरकालसे आपके पदों - चरणोंकी अपेक्षा कर रहे हैं । आज बड़े पुण्योदयसे मोक्षलक्ष्मी के स्थानभूत आपके चरणोंकी भक्ति प्राप्त हुई ।
इस पद्य में भवारण्य, कारुण्यनिलय और लक्ष्मीगृह पदोंमें रूपक है । कविने भक्ति की निष्ठा दिखलाते हुए अन्य दार्शनिकों द्वारा अभिमत आप्तका निरसन किया है। भाषाका प्रवाह और शैलीकी उदात्तता सहृदय पाठकके मनको सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करती है ।
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त्वदन्येऽध्यक्षादि प्रतिहत वचो युक्ति विषया विलुप्ताभा लोक व्यपलपन सम्बन्ध मनसः | भजन्ते नाऽऽप्तत्वं तदिह विदिता चञ्चन - कृतिः विसंवादस्तेषां प्रभवति तदर्थापरिगतेः ॥ इच्छा वा नियतेतरा न लभते सम्बन्धमोशेन तत् कर्मप्राभवतः सुखादिविभवः पर्याप्तमेतेन हि । मेत्ता कर्ममहीभृतां सकलविज्ञानादिसिद्धस्ततो यत्कारणाद्-हतादापादगदितं तत्स्यात्कथं श्रेयसे ॥
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प्रथम पद्य में आपकी समीक्षा करते हुए कपिलादिकको अनाप्त बताया गया है, क्योंकि वे प्रत्यक्षादिविरुद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवाले हैं । प्रामाणिकता रूप सच्ची ज्योतिसे शून्य हैं और लोगोंको गुमराह करनेवाले हैं। चूँकि लोकमें उनकी वञ्चना प्रसिद्ध है तथा पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान न होनेसे उनके विसम्वाद भी स्पष्ट है, अतएव वे आसताको प्राप्त नहीं होते । द्वितीय पद्य में नैयायिक और वैशेषिकों द्वारा अभिमत ईश्वरेच्छाको जगतके कारणका खण्डन किया है | संसारके समस्त पदार्थोंका निर्माण ईश्वरको इच्छासे सम्भव नहीं है | यह इच्छा नियत - नित्य है अथवा अनियत - अनित्य । यदि नित्य है, तो एक स्वभाव ईश्वर की तरह, वह भी एक स्वभाववाली हो जायगी और संसार के सभी कार्य एक समान होने लगेंगे । यदि अनित्य है, तो संसारके कार्य हो उत्पन्न नहीं हो पायेंगे । अतएव सुख-दुःखादि ईश्वरेच्छाजन्य नहीं, अपितु कर्मजन्य हैं । कोई भी परमात्मा अनादिसिद्ध सर्वज्ञ नहीं होता 1 वह कर्म
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१. श्रीपुर-पार्श्वनाथ स्तोत्र, पद्य १६ ।
२. वही पद्य २० ।
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३६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा