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व्यवहारको करती है। अतः पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पदार्थ ज्ञानसे भिन्न नहीं हैं।
उत्तर पक्षमें पूर्ववत् असिद्ध, विरुद्ध आदि दोषोंकी उद्भावना की गयी है। अनुमानस संवित्तिका बंध-वेदकभार भागने पर बाह्य अर्थ भी उसीसे वेद्य. वेदकभाव मान लेना चाहिए, क्योंकि दोनोंमें कोई असर नहीं है। "सन्ति बहिरर्थाः साधनदूषणप्रयोगात्" द्वारा बाह्य पदार्थ सिद्ध किये गये हैं। इसी प्रकार चित्रातकी परीक्षा भी की है।
चार्वाक, बौद्धशासन, सांख्यपरीक्षा, वैशेषिकशासनपरीक्षा, नैयायिकशासनपरीक्षा, मीमांसकपरीक्षा और भाट्ट-प्रभाकरशासनपरीक्षा भी तर्कपूर्वक लिखी गयी है।
इस ग्रन्थ पर तत्त्वार्थसत्रका प्रभाव भी दिखलायी पड़ता है । विद्यानन्दने अपनेसे पूर्ववर्ती आचार्योंका प्रभाव ग्रहण किया है । बीच-बीचमें अनेक ग्रन्थोंके उद्धरण भी आये हैं। ५. विद्यानन्दमहोदय ___आचार्य विद्यानन्दकी यह सबसे पहली रचना है। इसके पश्चात् हो उन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक और अष्टसहस्री आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्योंकी रचना की है। यह ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं, पर उसका नामोल्लेख श्लोकवात्तिक आदि ग्रन्थों में मिलता है। देवसूरिने तो अपने स्याद्वादरत्नाकरमें इसकी एक पंक्ति भी उद्धृत की है-"महोदये च 'कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते' इति वदन (विद्यानन्दः) संस्कारधारणयोरंकार्यमचकथत्"। इस ग्रन्थका नाम विद्यानन्दमहोदय और संक्षिप्त महोदय है। ६. श्रीपुर-पार्षनाथ स्तोत्र
श्रीपुर या अन्तरिक्षके पाश्वनाथको स्तुतिमें तीस पद्य लिखे गये हैं। इस स्तोत्रमें दर्शन और काव्यका गंगा-यमुनी संगम है । रूपक अलंकारको योजना करते हुए आराध्यकी भक्तिको प्रशंसा की गयी है । कवि कहता है
शरण्यं नाथाऽहंन् भव भव भवारण्य-विगतिच्युतानामस्माकं निरवकर-कारुण्य-निलय । यतोगण्यात्पुण्याच्चिरतरमपेक्ष्यं तव पदम
परिप्राप्ता भक्त्या वयमचल-लक्ष्मीगृहमिदम् ॥ १. स्याद्वादरत्नाकर, पु. ३४९ । २. श्रीपुरपार्श्वनाथ-स्तोत्र, पद्य २९, वीरसेवामन्दिर-संस्करण ।
शुतधर और सारस्वताचार्य : ३५१