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और भोगोंका त्याग नहीं किया जायगा, तब तक संयम की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है और संयम रहित व्यक्तिके गुण विशुद्ध नहीं हो सकते । बताया हैजाम ण हृणइ कसाए सकसाई णेव संजमी होई संजम हियस्स गुणा ण हंति सव्वे विसुद्धियरा ॥
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जो परीषहों को सहन करता हुआ शान्तिभावपूर्वक व्रत समिति और गुशियों का पालन करता है वह अनादिकालीन काम-क्रोधादिको नष्ट कर देता है । इस प्रसङ्गमें उपसर्ग और परीषहोंको सहन करनेवाले शिवभूति, सुकुमाल और सुकोशलके उदाहरण दिये गये हैं और मुनुष्यकृत उपसर्ग सहन करने में गुरुदत्त पाण्डव और गजकुमारके आख्यान दृष्टान्तके रूपमें प्रस्तुत किये हैं । देवकृत उपसर्ग के सहन करनेमें प्रसिद्ध हुए श्रीदत्त, सुवर्णभद्र आदिके उदाहरण दिये गये हैं । इस प्रकार उदाहरणों और प्रत्युदाहरणों द्वारा सैद्धान्तिक विषयको भी सरस बनानेकी वेष्टा की है।
मन, वचन और कायको वश करनेकी आवश्यकता पर जोर देते हुए लिखा है---
सिक्खह मणवसिय रणं सवसीहूएण जेण मणुआणं । णासंति राय-दोसे तेसि मासे समो परमो ॥२
मनको वशमें करनेकी शिक्षा देनी चाहिए। जिसका मन वशीभूत है वही राग-द्वेषको नाश कर सकता है और राग-द्वेषके नाश करनेसे ही परमपदकी प्राप्ति होती है ।
उपशभवान जीव ही मनका निग्रह कर सकता है और मनका निग्रह करने से ही आत्मा परमात्मापदको प्राप्त कर सकती है |
आचार्यने ध्यान, ध्याता और ध्येयका लक्षण बतलाया है और ध्यानके द्वारा ही सकल कर्मो का नाश होता है । अतः राग-द्वेष, मोहका विनाश करने पर ही ध्यानकी प्राप्ति सम्भव है। जो यह अनुभव करता है कि न में देह हूँ, न मन हूँ और न भुझमें दुःख ही है वह क्षपक समभावनासे युक्त होकर दुःखका विनाश कर लेता है । यथा-
नाहं देहो ण मणो ण तेण मे समभावणाई जुत्तो वि सहसु
१. आराधनासार गाथा ३७ । २. वही, माषा ६४
३. वही, गाचा १०१ ।
अत्यि इत्थ दुखाई । दुक्खं अहो खवय ॥ ३
श्रुतभर और सारस्वताचार्य : ३७९