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चारित्र, तपरूप आत्मा ही है, जो राग-द्वेष छोड़कर इस शुद्ध आत्माका आराधन करता है उसीकी निश्चय-आराधना होती है।
जीव चतुर्गतिमें भ्रमण करता है, भ्रमण करेगा और भ्रमण किया है । इसका कारण ज्ञानमयो आत्माराधनको प्राप्त न करना है। मरणकालमें वही व्यक्ति आत्माराधन कर सकता है जो राग-द्वेष रहित है। बताया है--
अप्पसहावे णिरओ वज्जियपरदन्वसंगसुक्खरसो । णिग्गहियराघदोसो हबई आराहमो मरणे ॥ जो रयणत्तयमइओ मुत्तणं अप्पणो विसुद्धप्पा।
चितेइ य परदव्वं विराहो णिच्छयं मणियो' । राग-द्वेषोंको दूर कर और परद्रव्योंके संयोगजन्य सुखका त्याग कर जो आत्मस्वभावमें निरत है बही मरण-कालमें आराधक होता है । जो रत्नत्रयमयी विशुद्ध आत्माको छोड़कर परद्रव्योंका चिन्तन करता है वह आराधनाका विराधक माना जाता है। जो न सम्यक् दर्शन, शान, चरित्ररूप आत्माको समझता है और न आत्मासे विलक्षण शरीरादि परद्रब्योंको ही जानता है, उसे न ज्ञानको प्राप्ति रहती है और न आराधनाको हो । ___जब तक वृद्धावस्था नहीं आती है, इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण नहीं होती है, बुद्धि नष्ट नहीं होती है, आयरूपी जल समाप्त नहीं होता है तब तक आत्मकल्याणके लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो व्यक्ति यह सोचता रहता है कि अभी तो युवावस्था है, विषयसुख-सेवनके दिन हैं यह वृद्धावस्था आने पर कुछ नहीं कर सकता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप आराधनाकी प्राप्ति शारीरिक शक्ति और इन्द्रियोंकी शक्ति रहने पर ही सम्भव है। बसाया है
जरवग्विणी ण चंपइ जाम प वियलाइ हंति अक्खाई। बुद्धी जाम ण णासइ आउजलं जाम ण परिगलई ।। जा उज्जमो ण वियलई संजम-तव-णाण-झाणजोएसु ।
तारिहो सो पुरिसो उत्तमठाणस्स संभवई बाह्य और अन्तरङ्ग परिग्रहका त्यागकर अन्तरङ्ग कषाय और विकारोंको कृश करनेका प्रयास करना ही वास्तविक आराधना है। कषाएँ अत्यधिक शक्तिशाली हैं। इन्हींके कारण चतुर्गति परिभ्रमण होता है । जब तक कषाय १. आराधनासार, माणिचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, माथा १९,२० । २. वही, प्राथा २५, २८ । ३७८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा