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इस प्रकार समस्त परिग्रहका त्यागकर बात्मसाधनामें संलग्न रहनेका निर्देश किया है। ४. तत्त्वसार
इस ग्रन्थमें ।७१ गाथाएं हैं। तत्वके मूलस: दो भेद हैं—(१) स्वगत तत्त्व और (२) गरगत तस्। स्वगत तत्व निजात्मा है और परगत तत्वमें परमेष्ठी हैं। स्वगत तत्वके भी दो भेद हैं-(१) सविकल्पक और (२) निर्विकल्पक । आस्रवसहितको सविकल्पक कहते हैं और आस्रवरहितको निर्विकल्पक । इन्द्रियविषय-सुखके समाप्त होनेपर मनको चंचलता जब अस्वद्ध हो जाती है तब आत्मा अपने स्वरूप निविकल्प हो जाता है। या--
जं पुणु सगयं तच्च सवियप्पं हबइ तह य अवियप्पं । सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगयसंकप्पं ।। इंदियविसविरामे मणस्स गिल्लूरणं हवे जइया।
तइया तं अविअप्प ससख्ये अप्पणो त तु॥' जो अविकल्पक तत्त्व है वही मोक्षका कारण है । उसोको शुद्ध समानकर ध्यान करना चाहिए।
इस प्रकरणमें श्रमण और योगीको व्युत्पत्ति बतलाते हुए लिखा है-'मनवचन-कायसे जो बाह्य और आभ्यन्सर परिग्रहसे रहित है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है और जिसने जिनलिमा आश्रय ग्रहण किया है वह श्रमण कहलाता है--
बहिरभंतरगंथा मुक्का जेणेह तिविहजोएण ।
सो णिग्गयो भणिो जिलिंगसमासिओ सवणों ।। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, मित्र-शत्रुको जो समानरूपसे ध्यान करता है वह योगी है । यथा
लाहालाहे सरिसो सुहसुक्खे तह य जीविए मरथे।
बंधव-अरयसमाणो झाणसमत्थो हु सो जोई॥ जो व्यक्ति आत्माको सिद्धि करना चाहता है वह ध्यान द्वारा कोका क्षय कर मोक्षको प्राप्त करे। यह आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्रस्वरूप है, असंख्यात प्रदेशी है और प्रदेशोंके संहार तथा विसर्पणके कारण यह शरीरप्रमाण है जो
१. तत्त्वसार, गाथा-५,६ । २. वही, गाया-१०। ३. वही, गाथा-११ ।
३८० : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य-परम्परा