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राग, द्वेष, मोहका त्याग कर जन्म-जरा-मरणसे रहित इस निरञ्जन आत्माका ध्यान करता है वह सिद्धिको प्राप्त कर लेता है । आत्मामें न रूप है, न रस है, न गन्ध है, न शब्द है । यह तो शुद्ध चेतनस्वरूप निरञ्जन है । यथा
फासरसरूवगंधा सद्दादीया य जस्स गरिय पुणो ।
शुद्धो चेयणभावो पिरंजणो सो अहं भणिओ ।' व्यवहारनयसे इस आत्मामें कर्म-नोकर्म माने जाते हैं । आत्मा और कर्मका सम्बन्ध दूध-पानीके समान है। जिस प्रकार दूध और पानी अपने-अपने स्वभावसे विकृत होकर एकमें एक मिल जाते हैं उसी प्रकार आत्मा और पौद्गलिक कर्म भी अपने अपने स्वभावको छोड़ एकमें एक मिल गये हैं। अतएव में शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ, ज्ञानरूप हूँ, कर्म-नोकर्म से रहित हूँ, एक हूँ, निरालम्ब हूँ, देहप्रमाण हूँ, नित्य हूं, असंख्यातदेशिक हूँ, अमूर्त हूँ। इस प्रकार चिन्तन कर आत्मस्वरूपको प्राप्त करना चाहिए । जब तक पर द्रव्योंसे चित्त व्यावृत्त नहीं होता तब तक भव्यजाव मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता है। चाहे कितना भी उग्र तप क्यों न करता रहे। आत्मसिद्धिका मलकारण राग-द्वेष और विषयसूखसे मुक्ति प्राप्त कर लेना है। __ यह ग्रन्थ आध्यात्मिक है तथा इसमें आत्मानुमूति तथा आत्मसिद्धिका उपाय वर्णित है। ५. लघुनयचक
इस ग्रन्थमें ८७ गाथाएँ हैं । नयका स्वरूप, उपयोगिता एवं उसके भेदप्रभेदोंका वर्णन किया है । नयका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है
जं गाणीण वियप्पं सुयभयं वत्यूयससंगहणं ।
ते इह गयं पउत्तं पाणी पुण तेहि णाणेहिं ।' जो वस्तुके एक अंशका ग्रहण करता है श्रुतज्ञानका वह भेद नय कहलासा है । नयके बिना बस्तुस्वरूपको प्रतिपति नहीं हो सकती है और नय द्वारा ही स्यावादका ज्ञान होता है । अतः नयका ज्ञान अनेकान्तात्मक वस्तुको प्रसिपत्तिके लिए अत्यन्त आवश्यक है । नयसे जिन वचनोंका बोध होता है और नयसे ही वस्तुको प्रतिपत्ति होती है। भूल नय दोहै-द्रव्याथिक और पर्यायाथिका नयके सामान्यतया नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरून और एवम्भूत ये सात भेद हैं । अन्य भेद निम्न प्रकार हैं१. त० सा०, गाथा २१ । २, लघुनयचक्र, गाथा २।
धुतघर और सारस्वताचार्य : ३८१