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'सन्मतिसूत्र'के कर्ता सिद्धसेनका समय समन्तभद्रके पश्चात् और पूज्यपादके पूर्व या समकालिक माना जा सकता है । ___ आचार्य मुख्तार साहबकी दो सिद्धमेवानी मान्यता बुद्धिसंगत प्रतीत होतो है। ग्रन्थके अन्तरंग परीक्षणसे मुख्तारसाहबने बतलाया है कि विक्रम संवत् ६६६के पूर्व सिद्धसेन हुए हैं । 'सन्मति सूत्रके कर्ता सिद्धसेन केवलीके शान-दर्शनोपयोग-विषयमें अमेववादके पुरस्कर्ता हैं। उनके इस अभेदवादका खण्डन दिगंबर सम्प्रदायमें अकलंकदेवने तरवार्थवात्तिमें और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें सर्वप्रथम जिनभद्र क्षमाश्रमणके "विशेषावश्यकभाष्य' और 'विशेषेणती' ग्रन्थोंमें किया है। साथ ही सन्मतिसूत्रके तृतीय काण्डकी "णस्थि पुढवीविसिट्टो" और "दोहि वि णहि गोय" गाथाएं विशेषावश्यकभाष्यमें क्रमशः मा० नं० २१०४, २१९५ पर उद्धृत पायी जाती हैं । इसके अतिरिक्त विशेषावश्यकभाष्यको स्वोपाटीकामें 'णामायिं दबट्टियस्स' इत्यादि गाथाकी व्याख्या करते हुए लिखा है
"द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनी संग्रह-व्यवहारो ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमतानु. सारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात्"।
इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके मसका और उनके गाथावाक्योंका उनमें उल्लेख किया गया है | अकलंकदेव विक्रम संवत् ७ वीं शताब्दीके विद्वान् हैं और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने विशेषावश्यकभाष्यको रचना शक सं० ५३१ (वि० सं०६६६) में की है। अतएव सिद्धसेन विक्रमकी ७ वीं शताब्दीसे पूर्ववर्ती हैं। उल्लेखनीय है कि आचार्य वीरसेनने भी धवला' और जयधवला दोनोंमें सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रके नामनिर्देशपूर्वक उसके वाक्योंको उद्धृत किया है तथा उनके साथ होनेवाले विरोधका परिहार किया है । वोरसेनका समय ईसाको ९ मी शती है। अतः सिद्धसेन स्पष्टतया उनसे भी पूर्ववर्ती सिद्ध है। पूज्यपाद देवनन्दिने सन्मतिसूत्रके ज्ञानदर्शनोपयोगके अमेदवादकी चर्चा तक नहीं को, जब कि अकलंकदेवने तत्त्वार्थवात्तिकमें उसको चर्चा ही नहीं, सयुक्तिक मीमासा भी की है। यदि पूज्यपादसे पूर्व सन्मतिसूत्र रचा गया होता, तो पूज्यपाद अकलंकको तरह उसके अमेदबादकी मोमांसापूर्वक ही युगपद्वादका प्रतिपादन करते। अतः सिद्धसेनका समय पूज्यपाद (वि० की ६ठी शसी) और अकलक (वि० की ७ वीं शती) का मध्यकाल अर्थात् वि० सं० ६२५ के आसपास होना चाहिए ।
१. षटलण्डागम, धवला, पु० १ पृ० १५ । २. कषायपाइड, जयपवला, पु. १, पृ० २६० ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ११