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सीसरे मतके प्रवत्तक डॉ. हीरालालजी जैन हैं। इन्होंने सिद्धसेनको गुप्तकालीन सिद्ध किया है। एक द्वात्रिशिकाके आधारपर विक्रमादित्य उपाधिधारी चन्द्रगुस द्वितीयका समकालीन माना है' । अन्यत्र भी आपने लिखा है
"सम्मइसुसका' रचनाकाल चोथी-पांचवीं शताब्दी ई० है ।" डॉ० जैनकी मान्यता पण्डित सुखलालजी संघवीके समान ही है।
चतुर्थ मत डॉ० पी० एल० वैद्यका है, जिन्होंने न्यायावतारकी प्रस्तावनामें प्रभावकचरितके निम्नलिखित पद्यको उद्धृत किया है और उसमें आये 'वीरवत्सरात्' पदकी व्याख्या 'वीरविक्रमात्' पाठ मानकर को है--
श्रीवीरवत्सरादषशताष्टके चतुरशीतिसंयुफ्ते ।
जिग्ये स मल्लवादो बौद्धस्तद्वयन्तरांश्चापि ॥ तदनुसार डॉ. वंद्य सिद्धसेनका समय आठवीं शती मानते हैं । आचार्य जगल किशोर मुख्तारने अनेक तर्क और प्रमाणोंके आधारपर न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन और कतिपय द्वात्रिशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनको सन्मतितके कर्ता सिद्धसेनसे भिन्न माना है। इस मिनिस लौर सिस' गीर्षक विस्तृत निबन्धमें यह निष्कर्ष निकाला है कि 'सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर विद्वान् है और न्यायावतारके कर्ता श्वेताम्बर । द्वात्रिशिकाओंमें कुछके रचयिता दिगम्बर सिद्धसेन हैं और कुछके कर्ता श्वेताम्बर सिद्धसेन । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें श्वेताम्बर आगमोंको संस्कृत में रूपान्तरित करनेके विचारमात्रसे सिद्धसेनको बारह वर्ष के लिए संघसे निष्कासित करनेका दण्ड दिया गया था । इस अवधि . सिद्धसेन दिगम्बर साधुओंके सम्पर्क में आये और उनके विचारोंसे प्रभावित हुए। विशेषतः समन्तभद्र के जीवनवृत्तान्तों और उनके साहित्यका उनपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा, इसलिए वे उन्हीं जैसे स्तुत्यादि कार्योमें प्रवृत्त हुए। उन्हीके साहित्यके संस्कारोंके कारण सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीकी वह महाकालवाली घटना भी घटित हुई होगी, जिससे उनका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो गया होगा। सिद्धसेनके इस बढ़ते प्रभावके कारण ही श्वेताम्बर संघको अपनी भलका अनुभव हुआ होगा और प्रायश्चित्तकी शेष अवधिको रहकर उन्हें प्रभावक आचार्य घोषित किया गया होगा।
दिगम्बर सम्प्रदायमें सिद्धसेनको सेनगणका आचार्य माना गया है । अतएव १. A contemporary ode to Chandragupta Vitramaditya, २. भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान : मध्यप्रदेश शासन संस्करण, १०-८७ । ३. प्रमाकरित : सिंधी जैनग्रन्थमाला, पृ०-४४, पद्य-८३ ।
२१. : तोपकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा