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"(स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकालसंस्थापनमहाकाललिङ्गमहोघर-वाग्वदण्डविष्ट्याविष्कृतश्रीपार्वतीर्थेश्वरप्रतिद्वन्द्वश्रीसिद्धसेनमट्टारकाणाम॥१४॥ समय-निर्धारण
सिद्धसेनके समयके सम्बन्धमें अनेक मान्यताए प्रचलित हैं। एक मान्यता इनको प्रथम शतीका विद्वान् स्वीकार करती है और प्रमाणमें पट्टावली-समुञ्चयमें सङ्कलित पट्टावलियोंको प्रस्तुत करती है । पर यह मत प्रमाणभूत नहीं है । यतः विक्रमादित्य नामके कई राजा हुए हैं। अतएव पट्टावलीमें उल्लिखित विक्रमादित्य वि० सं० का प्रवर्तक नहीं है। उजयिनीके साथ कई विक्रमादित्योंका सम्बन्ध है। अतः सम्भव है कि यह विक्रमादित्य विक्रम उपाधिधारी चन्द्रगुप्त द्वितीय हो ।
द्विसीय मतके अनुसार सिद्धसेनका समय जैनेन्द्र व्याकरणके रयिता पूज्यपादसे पूर्व माना गया है । इस मतके प्रवर्तक बाचार्य पण्डित सुखलालजी संभवी है। आपने पूज्यपादके व्याकरणगत "वेत्तेः सिद्धसेनस्य" ५।१७ सत्र में निर्विष्ट सिबसेनके मसका निरूपण करते हुए कहा है कि अनुपसग और सकर्मक
विद् धातुसे रेफका आगम होता है। इस मान्यताका प्रयोग नवमी विशिफाफे २२वें पचमें 'विद्रते' इस प्रकार रेफ आगमवाला प्रयोग पाया जाता है। अन्य वैयाकरण सम उपसर्गपूर्वक और अकर्मक/विद् धातुमें 'र' का आगम मानते हैं । पर सिद्धसेन अनुपसर्ग और सकर्मक/विद्धातुमें रेफका आगम स्वीकार करते हैं। इनकी इस विलक्षणताका निर्देश उनका बहुश्रुतत्व सूचित करता है । इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धिके सातवें अध्यायके १३वे सूत्रमें "उक्तञ्च' के बाद सिद्धसेन दिवाकरके एक पद्यका अंश उद्धृत मिलता है।' इससे उनका समय पूज्यपादके पूर्व विक्रमको पञ्चम शताब्दीका प्रथम पाद अथवा चतुर्थ शताब्दीका अन्तिम पाद होना चाहिए ।
मुनि जिनविजयजीने मल्लवादिके "द्वादशारनयचक्र'' में 'दिवाकर' का उल्लेख प्राप्त कर और प्रभावकारतके अन्तर्गत 'विजयसिंहचरितम्' में वीर निर्वाण संवत् ८८४को मल्लवादिका समय मानकर सिद्धसेनका काल वि० सं० ४१४ माना है।
१. वियोजयति चासुमिर्न न वधेन संयुज्यते,
शिकं च न परोपमर्दपु (प) रुषस्मृतेविधते ।।३।१६।। २. जैन साहित्य संशोधक, भाग २ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २०९