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रचनाएँ
उपयुक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि सिद्धसेन नामके एक-से अधिक विद्वान् हुए हैं । सन्मतिसूत्र और कल्याणमन्दिर जैसे ग्रन्थोंके रचयिता सिद्धसेन दिगम्बर सम्प्रदायमें हुए हैं। इनके साथ दिवाकर विशेषण नहीं है। दिवाकर विशेषण श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हुए सिद्धसेनके साथ पाया जाता है, जिनकी कुछ द्वात्रिशिकाएं, न्यायावतार आदि रचनाएं हैं। यहां दिगम्बर परम्परामें हुए सिद्धसेनकी उपलब्ध दो रचनाओंको विवेचित किया जाता है। सन्मतिसूत्र
प्राकृत भाषामें लिखित न्याय और दर्शनका यह अनूठा ग्रन्थ है । आचार्यने नयोंका सांगोपांग विवेचन कर जैनन्यायको सुदढ़ पद्धतिका आरम्भ किया है। भावान कारको पालो 'ग' बनाया और विभिन्न दर्शनोंका अन्तर्भाव विभिन्न नयोंमें किया है। इस ग्रन्यके ३ काण्ड हैं-(१) नयकाण्ड, जीवकाण्ड या शानकाण्ड और (३) सामान्य-विशेषकाण्ड या ज्ञेयकाण्ड ।
प्रथम काण्डमें ५४, द्वितीयमें ४३ और तृतीयमें ६९ गाथाएँ हैं । इस प्रकार कुल १६६ गाथाओं में ग्रन्थ समाप्त हुआ है ।
प्रथम काण्डमें द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंके स्वरूपका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है। तोयंकरवचनोंके सामान्य और विशेषभावके मूल प्रतिपादक ये दोनों ही नय हैं। शेष नयोंका विकास और निकास इन्हींसे हुआ है। लिखा है
तिस्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमलवागरणी। दव्वदिओ य पज्जवणो य सेसा वियप्पा सिं॥ दवट्ठियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ।
पडिलवे पुण वयणत्यनिन्छओ सस्स ववहारो॥ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों नय क्रमशः अभेद और भेदको ग्रहण करते हैं । तोर्थंकरके वचनोंकी सामान्य एवं विशेषरूप राशियोंके मूलप्रतिपादक द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक नय हैं। शेष नय मेद या अभेदको विषय करनेके कारण इन्हीं नयोंके उपभेद हैं । द्रव्याथिक नयको शुद्ध प्रकृति संग्रहको प्ररूपणाका विषय है और प्रत्येक वस्तुके सम्बन्धमें होनेवाला शब्दार्थ-निश्चय तो संग्रहका व्यवहार है। १, सन्मसिसूत्र, ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद संस्करण, ११३-४ । २१२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा