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विषयमें अन्तर है । तत्त्वार्थसारमें तत्त्वार्थसूत्र और उसके टोकाग्रन्थोंका सार है तथा उसका विषयानुक्रम भी तत्त्वार्थसूत्रके अनुरूप है, पर सिद्धान्तसारसंग्रहमें सिद्धान्तसम्बन्धी ऐसे विषय चचित हैं जो तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओंके अतिरिक्त अन्यत्र भी प्राप्त हैं। जोवन-परिचय और समय-विधार
अन्यके अन्तमें ग्रन्थकारने अपनी प्रशस्ति दी है, जिससे अवगत होता है कि लाडवागड़ संघमें धर्मसेननामके दिगम्बर मुनिराज हुए। उनके पश्चात् क्रमशः शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन, जयसेन, ब्रह्मसेन और वीरसेन हुए। वीरसेनके शिष्य गुणसेन हुए और गुणसेनके शिष्य नरेन्द्रसन हुए।
जयसेनमूरिने 'धर्मरत्नाकर' नामक ग्रन्थ रचा है । इसको अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि यह भी लाउवागड़ या झाडवागड़ संघके आचार्य थे। इन्होंने जो गुरुपरम्परा दो है उसमें धर्मसेन, शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन और जयसेनके नाम आये हैं। यह गुरु-परम्परा नरेन्द्रसेनद्वारा प्रदत्त परम्परासे मिलतीजुलती है।
अतः नरेन्द्रसेन धर्मरत्नाकरके कर्ता जयसेनके वंशज है । जयसेनने धर्मरत्नाकरको प्रशस्तिके अन्तसे उसका रचनाकाल १०५५ दिया है। जयसेन और नरेन्द्रसेनके मध्य में ब्रह्मसेन, वीरसेन और गणसेन नामके तीन आचार्य और हुए हैं। नरेन्द्रसेनने अपने ग्रन्थके मध्यमें भी दो स्थानोंपर वीरसेनका स्मरण किया है और अपनेको वीरसेनसे 'लब्धप्रसाद' कहा है । अतः नरेन्द्रसेन वीरसेनके समयमें वर्तमान थे और जयसेन तथा वीरसेनके मध्यमें केवल एक ब्रह्मसेन आते हैं। अत: जयसेनके धर्मरत्नाकरकी समाप्तिसे अधिक-से-अधिक पचास वर्ष पश्चात अर्थात् वि० सं० ११०५ वीरसेनका समय माना जा सकता है। और इस तरह नरेन्द्रसेनको विक्रमकी १२वीं शताब्दिके द्वितीय चरणका विद्वान् मानना उचित है।
अमृतचन्द्रक तत्त्वार्थसारसे नरेन्द्रसेनको सिद्धान्तसार रचनेकी प्रेरणा मिलो अवगत होती है, क्योंकि नरेन्द्रसेनके पूर्वज जयसेनने अपने धर्मरलाकरमें अमृत१. तेनागीयत झाडवागड इति त्वेको हि संघोऽनव... ..."धर्मसेनोगणींद.."तेभ्यः श्री
(तस्माच्छी) शांतिषणः समजनि........श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत्स...''जगत्सुबलिना श्रीभावसेनस्ततः .........."जगति जयसेनास्य इह सः.........."इति श्री सूरि जयसेनविरचितं धर्मरत्नाकरनामशास्त्रं समाप्तम् । –नाम्य प्रशस्ति-संग्रह, प्रथम
भाग, वीरसेवामन्दिर, दरियागंज दिल्ली द्वारा प्रकाशित, पृ०-४। ४३४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा