________________
स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायेंजैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता । सर्वार्थ सिद्धिरिति सद्भिरूपात्तनामा तत्त्वार्थवृत्तिरदिशं वा प्रथा' ॥
जो आर्य स्वर्ग और मोक्ष सुखके इच्छुक हैं, वे जिनेन्द्रशासनरूपी श्रेष्ठ अमृतसे भरी सारभूत और सत्पुरुषों द्वारा दत्त 'सर्वार्थसिद्धि' इस नाम से प्रख्यात इस तत्त्वार्थवृत्तिको निरन्तर मनोयोगपूर्वक अवधारण करें ।
इस वृत्तिमें तत्त्वार्थ सूत्रके प्रत्येक सूत्र और उसके प्रत्येक पदका निर्वचन, विवेचन एवं शंका-समाधानपूर्वक व्याख्यान किया गया है । टीकाग्रन्थ होनेपर भी इसमें मौलिकता अक्षुण्ण है ।
इस ग्रन्थके नामकरणका कारण स्वयं ही ग्रन्थकारने अन्तिम रचित पद्योंमेंसे द्वितीय पचमें अंकित किया है
तत्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वाः
शृण्वन्ति मे परिपठन्ति च धर्मभक्त्या । हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तै मंर्त्यमरेश्वरमुखेषु किमस्ति वाच्यम् ।।
अर्थात् - अर्थके सारको ज्ञात करनेके लिए जो व्यक्ति धर्म - भक्ति से तत्त्वार्थवृत्तिको पढ़ते और सुनते हैं वे परमसिद्धिके सुखरूपी अमृतको हस्तगत कर लेते हैं, तब चक्रवर्ती और इन्द्रपदके सुख के विषय में तो कहना ही क्या ?
सोलह स्वर्गौके ऊपर पञ्च अनुत्तर विमानोंमें सर्वार्थसिद्धि नामका एक विमान है | सर्वार्थसिद्धिवाले जोव एकभवावतारी होते हैं । यह 'तत्त्वार्थवृत्ति' भी उसीके समकक्ष है | अतः इसे 'सर्वार्थसिद्धि' नामसे अभिहित किया गया है ।
'तत्त्वार्थ सूत्र' की वृत्ति होनेपर भी इस ग्रन्थ में कतिपय मौलिक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं । मङ्गलाचरणके पश्चात् प्रथम सूत्रकी व्याख्या आरम्भ करते हुए उत्थानिकामें लिखा है- किसी निकटभव्यने एक आश्रम में मुनि परिषद् के मध्य में स्थित निर्ग्रन्थाचार्य से विनयसहित पूछा-भगवन् ! आत्माका हित क्या हैं ? आचार्यने उत्तर दिया- मोक्ष । भव्यने पुनः प्रश्न किया - मोक्षका स्वरूप क्या है और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " -- सूत्र रचा गया है।
१. सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ संस्करण, अन्तिम अंश, पथ १ ० ४७४ २. वहीं, पद्य २, पु० ४७४ ।
२२६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
।
I