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१. भौमिक – पृथ्वी सम्बन्धी निमित्त |
२. दिव्यक-आकाश सम्बन्धी निमित्त |
३. शाब्दिक – विभिन्न प्रकारके सुनाई पड़नेवाले शब्दजन्य निमित्त । आकाशसम्बन्धी निमित्तोंको बतलाते हुए लिखा है
सूरोदय
अच्छमणे
चंदमसरिक्खगहचरियं । तं पिच्छियं निमित्तं सव्वं आएसिहं कुणहं ॥
सूर्योदय के पहले और मस्त होनेके पहचान नन्द्रमा नमत्र ग्रहचार एवं उल्का आदि गमन एवं पतनको देखकर शुभाशुभ फलका ज्ञान करना चाहिए। इस शास्त्र में दिव्य, अन्तरिक्ष और मौम इन तोनों प्रकारके उत्पातोंका वर्णन भी विस्तारसे किया है। वर्षोत्पात, दवोत्पात, उल्कोत्पात्त, गन्धर्वोत्पात, इत्यादि अनेक उत्पातोंके द्वारा शुभाशुभ फलका प्रतिपादन आया है। आचार्य ऋषिपुत्रके निमित्तशास्त्रमें सबसे बड़ा महत्वपूर्ण विषय 'मेघयोग' का है। इस प्रकरणमें नक्षत्रानुसार वर्षाके फलका अच्छा विवेचन किया है। प्रथम वृष्टि यदि कृत्तिका नक्षत्र में हो, तो अनाजकी हानि, रोहिणी में हो, तो देशकी हानि, मृगशिरामें हो, तो सुभिक्ष, आर्द्रामें हो, तो खण्डवृष्टि, पुनर्वसुमें हो, तो एक माह वृष्टि, पुष्यमें हो, तो श्रेष्ठ वर्षा, आश्लेषा में हो, तो अन्न-हानि, मषा और पूर्वा फाल्गुनी में हो, तो सुभिक्ष, उत्तराफाल्गुनी और हस्तमें हो, तो प्रसन्नता, विशाखा और अनुराधामें हो, तो अत्यधिक वर्षा, ज्येष्ठा में हो, तो वर्षाकी कमी मूलमें हो, तो पर्याप्त वर्षा, पूर्वाषाढ़ा उत्तराषाढ़ा और श्रवणमें हो, तो अच्छी वर्षा, षनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें हो, तो उत्तम वृष्टि और सुभिक्ष, एवं रेवती आश्विनी और भरणी में हो, तो पर्याप्त वृष्टिके साथ अन्नभाव श्रेष्ठ रहता है और प्रजा सब तरहसे सुख प्राप्त करती है । भट्टोपलि टीकामें जो उद्धरण आये हैं उनमें सप्तमस्थ गुरु शुक्रके फलका प्रतिपादन बहुत ही रोचक और महत्वपूर्ण है । सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का फलादेश भी तिथि और नक्षत्रोंके क्रमसे वर्णित है । भुक्त, अभुक्त नक्षत्रोंका फलादेश भी बतलाया गया है । सारांश यह है कि ऋषिपुत्रकी पूर्ण रचना एक निमित्तशास्त्र ही उपलब्ध है । विभिन्न ग्रन्थोंमें उद्धरण पाये जानेसे इनकी संहिता विषयक रचनाका भी अनुमान लगाया जा सकता है ।
आचार्य मानतुंग
उत्पानिका
भक्तिपूर्ण काव्य के सृष्टा कविके रूपमें आचार्य मानतुंग प्रसिद्ध है। इनका प्रसिद्ध
श्रुतघर और सारस्वताचार्य २६७
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