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स्तोत्र 'भकामर' दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में समानरूपसे समादृत्त है । भक्त कविके रूपमें इनकी ख्याति चली आ रही है। इनको रचना इतनी लोकप्रिय रही है, जिससे उसके प्रत्येक पथके प्रत्येक चरणको लेकर समस्यापूर्त्यात्मक स्तोत्रकाव्य लिखे जाते रहे हैं । भछामरस्तोत्रकी कई समस्यापूर्तियां प्राप्त हैं । ओवन परिचय
आचार्यं कवि मानतुंगके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें अनेक विरोधी विचारधाराएँ प्रचलित है । भट्टारक सकलचन्द्रके शिष्य ब्रह्मचारी 'पायमल्ल' कृत 'भक्तामरवृत्तिमें', जो कि वि० सं० १६६७ में समाप्त हुई है, लिखा है कि “धाराधीश भोजकी राजसभायें कालिदास, भारवि माघ आदि कवि रहते थे । मानतुंगने ४८ सांकलोंको तोड़कर जैनधर्मको प्रभावना की तथा राजा भोजको जैनधर्मका उपासक बनाया । "
दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषणकृत 'मक्तामरचरित में निबद्ध है । इसमें भोज, भर्तृहरि, शुभचन्द्र, कालिदास, वनञ्जय, वररुचि और मानतुंग आदिको समकालीन लिखा है । बताया है व्वाचार्य मानतुंगने भक्तामरस्तोत्रके प्रभावसे मड़तालीस कोठरियोंके सालोंको तोड़कर अपना प्रभाव दिखलाया
आचार्य प्रभाचन्द्रने क्रिया-कलाप' की टीकाके अन्तर्गत भक्तामर स्तोत्र टीकाको उत्थानिका में लिखा है
" मानतुंगनामा सिताम्बरो महाकविः निर्ग्रन्याचार्य वयँ रपनीत महाव्याधिप्रतिपनिन्यमार्गो भगवन् किं क्रियतामिति ब्रुवाणो भगवता परमात्मनो गुणगणस्तोत्रं विधीयतामित्यादिष्टः भक्तामरेत्यादि" ।
अर्थात् — मानतुंग श्वेताम्बर महाकवि थे । एक दिगम्बराचार्यने उनको व्याधिसे मुक्त कर दिया, इससे उन्होंने दिगम्बरमागं ग्रहण कर लिया और पूछा—भगवन् ! अब मैं क्या करूं । आचार्यने माज्ञा दी - परमात्माके गुणोंका स्तोत्र बनाओ । फलतः आदेशानुसार भक्तामर स्तोत्रका प्रणयन किया ।
विक्रम संवत् १३३४ के श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्रसूरिकृत 'प्रभावकचरित' में मानतुंग सम्बन्ध में लिखा है-ये काशी निवासी धनदेव सेठके पुत्र
१. इस वृत्तिका अनुवाद पंडित उदयलाल कासलीवाल द्वारा सम्पन्न हुबा है और यह प्रकाशित है ।
२. यह कथा जैन इतिहास विशारद पंडित नाथूरामजी प्रेमीने सन् १९१६ ई० में बम्बईसे प्रकाशित भक्तामरस्तोत्रको भूमिकामें लिखी है ।
३. प्रभावकारितके अन्तर्गत मानतुंगसुरिचरितम् पु० ११२ - ११७ ।
२६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा