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है और समस्त पदार्थोंको जाननेवाला है अथवा चैतन्यस्वभावसे भिन्न समस्त रागादि विकारोको न करनेवाला है। इस का आरम्भमें ही शुद्ध आत्मतत्त्वको नमस्कार किया गया है। समयसारको व्याख्याका प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है-- परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावा
दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः । ममपरमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते
भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ॥३॥ इस समयसारकी व्याख्यासे मेरी अनुभूतिकी परम विशुद्धता प्रकट हो । यद्यपि मेरी वह अनुभूति शुद्ध चैतन्यमात्र मुर्तिसे युक्त है अर्थात् परम ज्ञायक भावसे सहित है तथापि वर्तमानमें परपरिणतिका कारण जो मोहनामका कर्म है, उसके उदयरूप विषाकसे निरन्सर रागादिकी व्याप्तिसे कल्माषित-मलिन हो रही है । अर्थात् इस व्याख्यासे मेरो अनुभूतिमें परम विशुद्धसा उत्पन्न होगी। निश्चय और व्यवहार नयके विवादको समाप्त करते हुए बताया है-- उभयनयविरोषध्वंसिनि स्यात्पदाके
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहः । सपदि समयसारं ते पर ज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥४॥ अर्थात् निश्चय और व्यवहार नयके विषयमें परस्पर विरोध है, क्योंकि निश्चयनय अभेदको ग्रहण करता है और व्यवहारनय भेदको । किन्तु इस विरोधका परिहार करनेवाला स्थाद्वादवचन है, उस वचनमें वे ही रमण कर सकते हैं, जिन्होंने मोहका वमन कर दिया है और वे ही पुरुष शीघ्र ही उस समयसारका अवलोकन करते हैं, जो कि अतिशयसे परमज्योतिस्वरूप है। नवीन नहीं अर्थात् द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं और एकान्तपक्षसे जिसका खण्डन नहीं हो सकता।
शुद्धनयकी दृष्टिसे आत्मा अपने एकपनमें नियत है । स्वकीय गुणपर्यायों में व्याप्त होकर रहता है तथा पूर्णज्ञानका पिण्ड है। ऐसे आत्मतत्त्वका आत्मातिरिक द्रव्योंसे भिन्न अवलोकन करता है, इसीका नाम सम्यकदर्शन है। इसके होते ही जो आत्मज्ञान होता है वह सम्यकज्ञान कहलाता है। जब तक आत्मामें परसे भिन्न अपनी यथार्थ प्रतीति नहीं होती तब तक यथार्थ शान नहीं होता। अतएव नवतत्त्वको संततिको छोड़कर केवल एक आत्माको ही परसे भिन्न शुखरूपमें अनुभूत करना ही यथार्थ पुरुषार्थ है। बताया है४१४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा