________________
एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः
पूर्णज्ञानधनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्माऽयमेकोऽस्तु नः ||६|| इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने समयसारके समान ही विषयोंका विवेचन करते हुए आत्माका कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदिका निरूपण किया है। अन्समें आत्माकी आश्चर्यकारक महिमाका वर्णन करते हए लिखा है-"जब विभावशक्तिकी अपेक्षासे विचार करते हैं तब आत्मामें कषायका उपद्रव दिखाई देता है और जब स्वभावदशाका विचार करते हैं तो शान्तिका प्रसार अनुभवमें भाता है। कर्मबन्धकी अपेक्षा संसारको जन्म-मरण रूप बाधा दिखाई देती है और शुद्ध स्वरूपका विचार करनेपर मुक्तिकास्पर्श अनुभव में आता है। स्वपरिज्ञायक भावकी अपेक्षा करनेपर आत्मा लोकत्रयका ज्ञाता है और ज्ञायकभावको अपेक्षा एक चैतन्यमात्र अनुभवमें आता है। इस प्रकार अनेक विरुद्ध धर्मों के समावेशगोरा आलाकमावी उपमु महिमा दिसलाई पड़ती हैकषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो
भवोपतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः । जगत्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकतः
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ॥२७॥ समयसारको अपेक्षा समयसारकलश अतिगहन है। निश्चयतः आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने अध्यात्मगंगा प्रवाहित की है। इस गंगामें अवगाहन करनेवाले सभी प्रकारसे शान्तिलाभ करते हैं । समयसार-टीका
अमृतचन्द्रकी समयसार-टीका आत्मख्यातिके नामसे प्रसिद्ध है । यह आचायकी प्रांजल शैलीका उत्कृष्ट नमूना है। उन्होंने गाथाके शब्दोंका व्याख्यान न कर उसके अभिप्रायको अपनी परिष्कृत गद्यशैलीमें व्यक्त किया है । जहाँ उन्हें गाथाके मूलभावमें कोई कमी दिखलाई पड़ी है वहीं उन्होंने ममयसारकलश नामसे पद्य भी लिख दिया है। यह समयसारकलश आत्मख्यातिटीकामें मिश्रित हो जानेपर भी उसका ग्रंथरूपमें पृथक् अस्तित्व भी है। टीकामें समस्यन्तपद भी विद्यमान हैं तथा अनेक शब्दोंके निर्वचन भी दिये गये हैं और भावको स्पष्ट करनेका पूर्ण प्रयास किया है । जहाँ कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें प्रमेय अस्पष्ट थे वहाँ कलश अथवा आत्मख्याति टीकाद्वारा ही स्पष्टता लाकर जैनतत्त्वज्ञानको समृद्ध किया है।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४१५