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गुरु-परम्परा और सम्पदाय
दिगम्बर सम्प्रदायको पट्टावलियों, अभिलेखों, ग्रन्थ-प्रशस्तियों एवं श्रुतावतार आदिमें जो परम्पराएं उपलब्ध होती हैं, उनमें से किसी भी परम्परामें शिवार्य द्वारा उल्लिखित अपने गुरुओं-जिननन्दि, सर्वगुप्त और मित्रनन्दिके नाम नहीं मिलते । शाकटायन व्याकरण में.."उपसर्वगुप्तं व्याख्यातार:' ।" अर्थात् समस्त व्याख्याता सर्वगप्तसे नीचे हैं-उन जैसा कोई दूसरा व्याख्याता नहीं । बहत सम्भव है कि इन्हीं सवंगुप्तके चरणों में बैठकर शिवायंने सत्र और उनका अर्थ अच्छी तरह ग्रहण किया हो और तत्पश्चात् आराधनाकी रचना की हो। श्री प्रेमोजीने शाकटायनके उक्त उल्लेखके आधारपर शिवार्य या शिवकोटि को यापनीय संघका आचार्य बताया है । उन्होने अपने कथनकी पुष्टिके लिए निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित किये हैं
१. भगवती आराधनाकी उपलब्ध टोकाओं में सबसे पुरानी टीका अपराजित सरिकी है और जैसा कि आगे बतलाया जायगा वे निश्चयसे यापनीय संघके हैं। ऐसो दशामें मूलग्रन्थकर्ता शिवायंको भी यापनीय होनेको अधिक सम्भावना है।
२. यापनीय संघ श्वेताम्बरोंके समान स्त्रग्रन्थोंको मानता है और अपराजित सूरिको टोकामें सैकड़ों माथाएं ऐसी हैं जो सूत्रग्रन्थों में मिलती हैं।
३. दश स्थितकल्पोंके नामों वाली गाथा जातकल्पभाष्य और अनेक श्वेताम्बर टीकाओं और नियुक्तियों में मिलती हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी इसे श्वेताम्बर गाथा माना है।
४. आराधनाको ५६५-५६६ नम्बरको गाथाएं दिगम्बर मुनियोंके आचारसे मेल नहीं खातीं। उनमें बीमार मुनिके लिए चार मुनियोंके द्वारा भोजन-पान लानेका निर्देश है।
५. आराधनाकी ४२८वीं गाथा आचारांग और जोतकल्प ग्रन्धोंका उल्लेख करतो है, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध ग्रन्थ है।
६. शिवायने अपनेको पाणित्तलभोजी लिखा है। यापनीय संघके साधु श्वेताम्बर साधुओंके समान पात्रभोजी नहीं बल्कि दिगम्बरोंके समान करपात्रभोजी थे। ___ इस प्रकार श्री प्रेमीजीने शिवार्य या शिवकोटिको धापनीय संघका आचार्य माना है और इनके गुरुका नाम प्रशस्तिके आधारपर सर्वगुप्त सिद्ध किया है। १. शाकटायन-व्याकरण-१।३।१०४ । २. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृष्ठ २९-३० ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : १२५