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समय निर्धारण
भगवती आराधना या मूलाराधनाके कर्ता शिवार्य कब हुए, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है । उन्होंने अपने समयका निर्देश कहीं नहीं किया है। परवर्ती आचार्यों में जिनसेनाचार्यने ही सर्वप्रथम उनका उल्लेख किया है। जिनसेनका समय नवम शताब्दी होनेसे शिवार्यके समयकी सबसे ऊपरी सोमा ई. सन् नवम शताब्दी मानी जा सकती है। शाकटायनके निर्देशानुसार सर्वगुप्त उनके गुरु हैं। शाकटायनका काल भी शिवार्य के समयकी अपनी सीमा हो सकता है। अब प्रश्न यह है कि शिवार्यको जिनसेन और पाल्यकोतिसे कितना पहले माना जाय । ग्रन्थका अन्तरङ्ग अध्ययन करनेपर ज्ञात होता है कि आराधनाके ४० वें विजहना नामक अधिकारमें आराधक मुनियोंके मृतक संस्कार वर्णित हैं, उनसे ग्रन्थको प्राचीनतापर प्रकाश पड़ता है । इसके अनुसार उस समय मुनिके मृतक शरीरको वनमें किसी अच्छी जगहपर यों ही छोड़ दिया जाता था। और उसे पशु-पक्षी समाप्त कर देते थे।
इस ग्रन्थपर अपराजित सूरि द्वारा विरचित 'विजयोदया' नामक संस्कृत टीका उपलब्ध है। इस टीकासे भी इस ग्रन्थको प्राचीनता प्रकट होती है। अन्य टोका-टिप्पणोंसे यह अवगत होता है कि इस ग्रन्थपर प्राकृल-टीकाएं भी उपलब्ध हों। इन टोकाकः उस्लेश करवा दाबाने "प्राकृसटीमापाम्" कहकर किया है। मलाराधनादर्पण-टीकामें अनेक स्थलोंपर प्राकृतदीकाका निर्देश आया है। यथा--"प्राकृतटोकायां तु अष्टाविंशतिमूलगुणाः । आचारवत्वादयश्चाष्टी इति षटत्रिंशत् ।"
प्राकृतटीकायां पुनरिदमुक्त-उत्तरापथे चमरंगम्लेच्छविषये म्लेच्छा बलोकाभिर्मानुषरुधिरं गृहीत्वा भंडकेषु स्थापयन्ति । ततस्तेन रुधिरेण कतिपयदिवसोत्पतविपन्नकृमिकेगोर्णासूत्रं रंजयित्वा कंबलं वयंति । सोऽयं कृमिरागकंबल इत्युच्यते । स चातोव रुधिरवर्णो भवति, तस्य हि वन्हिना दग्धस्यापि स कृमिरागो नापगच्छतोति । सोधो शुक्लतापादनं । जदुरागवच्छसोधी सिन्धुदेशलाक्षारक्तटसरिवस्त्रशुद्धिः । अवि अपिः सम्भावने । किहइ कथंचित् । आयासेन । ण इमा सल्लुद्धरणसोधो इयं गुरूपचारपूर्विकालोचनया रत्नत्रयशुद्धिः ।
१. मूलाराधना, सोलापुर संस्करण, सन् १९३५, गापा ५२६, पृ० ७४४ 1 २. वाही, गाथा ५६७, पृ. ७५८ । १२६ : तीर्थकर महापौर और उनकी आचार्य-परम्परा