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प्राकृतटीकायां तु कम्ममलविष्पमुक्को कम्ममलेण मेल्लिदो सिद्धि णिव्वाणं पत्तो त्ति प्राप्त इति। ___इन अवतरणोंसे यह स्पष्ट है कि मलाराधना या भगवती आराधनापर प्राकृतटोका रही है । प्राकृतटोका लिखे जानेका समय विक्रम संवत् ६ ठी शताब्दीसे पूर्व है । प्राकृतग्रन्थोंकी प्राकृत भाषामें टीका लिखनेकी परम्परा ५ वी-६ ठी शताब्दी तक हो मिलती है । इसके पश्चात् तो संस्कृत भाषामें टीका लिखनेको परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी । अतएव मूलाराधनाका समय विक्रम ६ठी शतीके पूर्व होना चाहिए ! डॉ हीरालालजी जैनने लिखा है-"कल्पसूत्रको स्थविरावलीमें एक शिवभूति आचार्यका उल्लेख आया है तथा आवश्यक मूलभाध्यमें शिवभूतिको चोरनिर्वाणसे ६०९ वर्ष पश्चात् बोडिक-दिगम्बर संघका संस्थापक कहा है। कुन्दकुन्दाचार्यने भावपाहुडमें कहा है कि शिवभूतिने भाव-विशुद्धि द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया। जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणमें लोहायके पश्चाद्वर्ती आचार्यो में शिवगुप्त मुनिका उल्लेख किया है। जिन्होंने अपने गुणोंसे अहंद्र बलि पदको धारण किया था..........."ग्रन्थ सम्भवतः ई० की प्रारम्भिक शत्ताब्दियोंका है।"
स्पष्ट है कि डॉ. ही शालालजी TI TI T ई मन् द्वितीयतृतीय शती मानते हैं । इस ग्रन्थपर अपराजित सरि द्वारा लिखी गयी टीका ७वीं-८वीं शताब्दीकी है । अतः इससे पूर्व शिवायंका समय सुनिश्चित है। डॉ० ज्योतिप्रसाद जेनने शिवायंके समयका विचार करते हुए लिखा है
शिवार्य सम्भवतः श्वेताम्बर परम्पराके शिवभूति हैं। ये उत्तरापथकी मथुरा नगरीसे सम्बद्ध हैं और इन्होंने कुछ समय तक पश्चिमी सिन्धमें निवास किया था 1 बहुत सम्भव है कि शिवायं भी कुन्दकुन्दके समान सरस्वती आन्दोलनसे सम्बद्ध रहे हों। वस्तुत: शिवार्य ऐसी जैन मुनियोंकी शाखासे सम्बन्धित हैं जो उन दिनों न तो दिगम्बर शाखाके ही अन्तर्गत थी और न स्वेताम्बर शाखाके हो। यापनीय संघके ये बाचार्य थे । अतएव मथुरा अभिलेखोंसे प्राप्त संकेतोंके आधारपर इनका समय ई० सन् की प्रथम शताब्दी माना जा सकता है। १. मूलाराधना, माथा १९९९, पृ० १७५५ । २. भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान, पृ० १०६ । 3. The Jaina Sources of the History of Ancient India,
P. 130-31.
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : १२७