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वीरसेन एवं जिनसेन हुए हैं। शिवकोटिका तो उल्लेख मिलता भी है । पर शिवायनका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । शिवायनका अन्यत्र भी कहीं नाम नहीं आता । भगवती आराधनाके रचयिता शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य थे, इसका सामक कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता ।
श्रवणबेलगोलके अभिलेख नं० १०५ में शिवकोटिको तत्त्वार्थ सूत्रका टीकाकार बतलाया है। यह अभिलेख विक्रम सं० १४५५ का है । इसमें आया हुआ 'एतत्' शब्द विचारणीय है । श्री पं० जुगलकिशोरजी मुल्तारका यह अनुमान है कि-
" तस्यैव शिष्य शिव कोटिसूरिस्त पोलता लम्बनदेह्यष्टिः । संसार- वाराकर-पोतमेतत्तत्वार्थसूत्रं तदलञ्चकार' |
उपर्युक्त पद्य तस्वार्थ सूत्रकी उसी शिवकोटिकृत टीकाकी प्रशस्तिका एक पद्य है जो शिलालेखमें एक विचित्र ढंगसे शामिल कर लिया गया है । अन्यथा शिलालेखके पद्योंके अनुक्रममें 'एत्तद्' शब्दको संगत नहीं बैठ सकती । अतएव शिवार्यकी तत्त्वार्थं सूत्रपर कोई अवश्य टीका रही है। भले ही वे शिवाय आराधनाके कर्तासे भिन्न हों। यह भी सम्भव है कि शिलालेख में उल्लिखित समन्तभद्र ही उनके गुरु हों । अष्टसहस्रीपर विषमपदतात्पर्य टीकाके रचयिता एक लघुसमन्तभद्र हुए हैं, जिनका समय अनुमानतः विक्रमको १३ वीं शताब्दी है ।"
यदि भगवती आराधनाके रचयिता शिवार्य या शिवकोटिकी तत्त्वार्थसूत्रकी कोई टीका होती तो उसका उल्लेख तत्त्वार्थ सूत्रके अन्य टीकाकार अवश्य करते । पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि टीकामें भी उसका निर्देश अवश्य मिलता । अतः न तो भगवती आराधना के रचयिता शिवकोटिक तत्त्वार्थ सूत्रपर कोई टीका ही है, और न वे समन्तभद्रके शिष्य ही जान पड़ते हैं।
एक अन्य प्रमाण श्रीपण्डित परमानन्दजो शास्त्रीने अपने एक निबन्ध में उपस्थित किया है। उन्होंने लिखा है कि शिवायंने गाथा २०७९-८३ में स्वामी समन्तभद्रको तरह गुणव्रतों में भोगोपभोगपरिमाणको न गिनाकर देशाकाशिकको ग्रहण किया है और शिक्षाव्रतोंमें देशावकाशिक को न लेकर भोगोपभोगपरिमाणका विधान किया है। यदि वे समन्तभद्रके शिष्य होते तो इस विषय में उनका अवश्य अनुसरण करते । इस प्रकार आराधना के रचयिताके साथ समन्तभद्रका सम्बन्ध घटित नहीं होता ।
१. जैनशिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, पृ० १९८ । २. अनेकान्त, वर्ष २, किरण ६ ।
१२४ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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