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५. इन्होंने गुरुओंसे सूत्र और उसके अर्थकी सम्यक् जानकारी प्राप्त की है। जिनसेनाचार्यने आदिपुराणके प्रारम्भमें शिवकोटि मुनिको नमस्कार किया है । शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्य चतुष्टयम् । मोक्षमार्ग स पायाशः शिवको टिमुनीश्वरः ॥
अर्थात् जिनके वचनोंसे प्रकट हुए चारों आराधनारूप मोक्ष-मार्गको आराधना कर जगत् जीव सुखी होत हैं वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें।
उपर्युक्त पद्य में जिस रूप में जिनसेन आचार्यने शिवकोटि मुनीश्वरका स्मरण किया है उससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि शिवकोटि मुनीश्वर भगवती आरा धनाके कर्ता हैं । अतएव दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार प्रकारकी आराधनाओं का विस्तृत वर्णन करनेवाले शिवाय का ही शिवकोटि नाम होना चाहिए है ।
प्रभाचन्द्रके आराधनाकथाकोष और देवचन्द्रके राजावलिकये (कन्नडग्रन्थ) में शिवकोटिको स्वामी समन्तभद्रका शिष्य बतलाया है। ये शिवकोटि काशी या कांचीके शैव राजा थे और समन्तभद्रके चमत्कारको देखकर उनके शिष्य बन गये थे । पर इन कथाओंका ऐतिहासिक मूल्य कितना है, यह नहीं कहा जा सकता | यदि वस्तुतः शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य होते, तो इतने बड़े ग्रन्थ में वे अपने उपकारी गुरु समन्तभद्रका उल्लेख न करें, यह सम्भव नहीं है ।
हरिषेणकृत कथाकोष में समन्तभद्रको उक्त कथा नहीं है । यह ग्रन्थ विक्रम सं० ९८८ में लिखा गया है। अत: उपलब्ध कथाकोषोंमें यह सबसे प्राचीन है | इस कथा कोष में शिवकोटिसे सम्बद्ध समन्तभद्भवाली कथाके न मिलनेसे शिवकोटिका समन्तभद्रका शिष्य होना शंकास्पद है ।
शिवकोटिका सबसे पुरातन उल्लेख आदिपुराणमें मिलता है। आदिपुराणके रचयिता जिनसेनके समय में यदि शिवकोटि और समन्तभद्रका शिष्पगुरुत्व प्रसिद्ध होता तो वे समन्तभद्रके पश्चात् ही शिवकोटिको स्तुति करते । पर ऐसा न कर उन्होंने श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्रकी स्तुति लिखकर शिवकोटिका स्मरण किया है ।
afa हस्तिमल्लने विक्रान्त कौरवमें समन्तभद्रके शिवकोटि और शिवायन दो शिष्य बतलाये हैं और उन्हींके अन्दयमें वीरसेन, जिनसेनको बतलाया है | पर इस बातका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि समन्तभद्रकी शिष्यपरम्परा में
१. आदिपुराण ११४९
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : १२३